Atmadharma magazine - Ank 233
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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फागण: २४८९ : १३ :
रागथी निमित्तथी निरपेक्ष निर्विकल् तत्त्वनुं ज्ञान, आश्रय अने अनुभव नथी, तेओ तेमना मानेला
व्रत, तपादिनुं आचरण करे छे, शुभरागमां शुद्धिनो अंश–संवर–निर्जरा माने छे अने ए रीते व्यवहार
करतां करतां अनुक्रमे मोक्ष मळशे एवी मिथ्याबुद्धिवडे भ्रान्तिने ज सेवे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे.
अमे सर्वज्ञ वीतरागने मानीए छीए, तेओ ज १८ दोष रहित संपूर्ण निर्दोष परमात्मपदने
प्राप्त छे, बीजाने परमात्मा मानता नथी, पण एवा परमात्मानी भक्ति पण राग विना होती नथी.
ज्ञानीने पण एवो राग आवे छे, ए भक्तिनो राग शुभवृत्ति छे; तेनाथी कल्याण माननारा
मिथ्याद्रष्टि छे. ज्ञानी विनयभावथी बोले के अहो, धन्य प्रभु! आपनी भक्ति अने मुक्तिनुं कारण
बनो, तेनो अर्थ एम छे के खरेखर एम नथी; भगवान अने तेमना प्रत्येनो राग ते मुक्तिनुं खरु
कारण नथी ज. पण अशुभथी बचवा आ जातनो राग निमित्तरूपे होय छे. चारित्रमां अस्थिरताने
कारणे, ज्ञानीने पण भूमिकानुसार व्रत, तप, भक्ति आदिनो राग आवे छे पण तेने पुण्य–बंधनुं
कारण जाणे छे, निश्चयथी उपादेय मानता नथी. स्वरूपमां ठरी, तेनाथी निवर्तवा ज मागे छे. साधक
विनयथी कहे छे के हे भगवान! तमे निज शुद्धात्मशक्तिमां एकाग्र थई मोक्ष पाम्या छो ते ज रीते हुं
पण स्वसन्मुख थई मोक्षदशा प्रगट करीश. मोक्षना साधनमां आदि मध्य अंतमां ए एक ज खरुं
कारण छे.
ज्यां निश्चयथी अभिन्न साध्य साधन होय त्यां भिन्न साध्य साधननो व्यवहार लागु पडे छे.
भिन्न साधन एटले निमित्त, पररूप संयोग, पराश्रयरूपभेद. केसर विनानो खाली डबो होय ते
“केसरनो डबो” एम नाम पामतो नथी, तेम निश्चयना अनुभव विना निर्विकल्प शुद्धदशा अंशे पण
प्रगट कर्या विना, एकला शुभरागने व्यवहारे पण व्यवहार रत्नत्रय–व्यवहार, साधन, निमित्त एवुं
नाम पण मळतुं नथी.
परमार्थे साध्य–साधन अभिन्न ज होय छे, भिन्न होता ज नथी. शुभरागरूप व्यवहार साधन
अने शुद्धता (आत्मानी) साध्य एम क््यारेक कथन आवे तो ते सत्यार्थ निरूपण नथी, रागथी
निरागी न थवाय, झेर खावाथी अमृतना ओडकार न आवे, परंतु असद्भूत व्यवहारनय द्वारा तेनुं
निमित्तपणुं बताववा उपचार मात्रनुं निरूपण कर्युं छे एम समजवुं जोईए, पण केवळ (एकान्त)
व्यवहारलंबी जीवो आ वातने ऊंडाणथी मानता नथी, पण ‘खरेखर अमने शुभभावरूप साधनथी ज
शुद्धभावरूप साध्य प्राप्त थशे’ एवी श्रद्धा ऊंडाणमां सेवता थका निरन्तर खेद पामे छे.
व्यवहारना कथनने निश्चयना अर्थमां खरेखर माननारने पुरुषार्थ सिद्धउपाय नामे
श्रावकाचारमां श्री अमृतचंद्राचार्ये कह्युं छे के तेवा जीव उपदेशने लायक नथी. जेम जे पुरुष बिलाडीने
ज सिंह समजी बेसे ते तो उपदेशने ज लायक नथी, तेम जे पुरुष उपचरित व्यवहार निरूपणने ज
सत्यार्थ निरूपण मानी, वस्तुस्वरूपने मोक्षमार्गने खोटी रीते समजी बेसे ते तो उपदेश ज योग्य नथी.
सर्वज्ञ भगवाने कहेला जीवादि छ द्रव्योनुं चिंतवन करवामां तेमज पुष्कळ द्रव्यश्रुत वांचवा
सांभळवाथी मनमां अनेक प्रकारनी कल्पनानी जाळ ऊठे छे अने तेनाथी चैतन्य वृत्ति चित्र विचित्र
तरंगरूपे डामाडोळ थाय छे, उपरांत क््यारेक छ द्रव्य, नव तत्त्वनुं चिंत्त्वन करे, क््यारेक पंचपरमेष्ठीना
स्वरूपनो विचार करे, क््यारेक भगवानना नामनो जाण कर्या करे छे अने आने ज धर्मनुं साचुं साधन
मानी, कदी रोमांचित थई आत्मा साक्षात्कार थयो माने छे. परंतु पोताना वीतरागी शुद्ध स्वभावने
आश्रये निर्मळ दशा प्रगटे छे एम मानतो नथी, तो ते कल्पनामां संतोष मानतो होवाथी रागनो ज
आदर करे छे अने वीतरागनो अनादर करे छे आम आचार्यदेवे आवा जीवोने मिथ्याद्रष्टि कह्यां छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के–
“यम नियम संयम आप कियो,
पुनि त्याग विराग अथाग लयो,