Atmadharma magazine - Ank 233
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म: २३३
जप भेद जपे तप त्योंही तपे,
उरसेंही उदासी लहि सबपै,
सबशास्त्रनमें नयधारि हिये,
मनमंडन खंडन भेद लीये,
वह साधन वार अनंत कियो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो,
अब कयों न विचारत है मनसें,
कछु और रहा उन साधनसें.”
रागनी रुचिवाळाने अज्ञान पोषक उपदेशनी वात पसंद आवे छे. तेथी राग अने पुण्यमां धर्म
मानी बेठा छे. अज्ञानी धर्म कथा कहे छे तो पण तेनी कथाने सम्यग्दर्शननो नाशकरनारी
“दंसणभेदीनी” कथा कही छे. अज्ञानी शास्त्रना शब्दो धारण करी राखे, अनेक प्रकारे तेना विकल्पमां
वर्ते पण राग अने निमित्तनी अपेक्षा विनानो हुं नित्य चैतन्य घन छुं एवो निर्णय करी चैतन्यमां
ढळतो नथी. अशुभ रागने खराब, शुभ रागने भलो मानी, रागमां ज लाभ मानी बेठो छे तेथी तेने
अपूर्व सत्य शुं ते समजातुं नथी.
प्रश्न– शास्त्र वांचवाथी पोतानी मेळे समजातुं नथी तो शास्त्र वांचवा नहीं ने?
उत्तर– भाई, धर्मी जीव पण अंदरमां एकाग्रता न रही शके त्यारे शास्त्र वांचे छे, बीजा शुभ
अशुभ रागमां पण जोडाय छे छतां कोईपण राग करवा जेवो मानता नथी, हितकर मानता नथी.
तारी दशामां पूर्णताना लक्षे अतीन्द्रिय आनंदसहित आत्मानो अनुभव थयो होय तो पछी
विशेष अभ्यास द्वारा अतीन्द्रिय आनंदनो ऊभरो आववो जोईए. ज्ञानी जीवने पूर्णताना लक्षे
अतीन्द्रिय आत्मानो अनुभव होय छे तोपण विशेष अभ्यास द्वारा ज्ञाननी निर्मळता माटे शास्त्र
वांचे छे, सांभळे छे. रागमां के पराश्रयमां धर्म न माने, धर्मी जीव स्वमां पूरेपूरो ठरी न शके त्यां
आवा शुभभाव आव्या विना न रहे, पण तेनाथी कल्याण छे एम कदी न माने.
अज्ञानी व्यवहाराभासी छे ते एम माने छे के आटलो व्यवहार करीशुं तो निश्चय धर्मने
पामीशुं. एम रागना आश्रयथी हित माने छे, अने मनावे छे. त्यारे ज्ञानीने शुभराग एना काळे
आवे छे, पण ते आदरणीय छे, हितकर छे एम माने नहीं. कोईपण जातनो राग करवा जेवो मानता
ज नथी, शुभाशुभ रागनुं स्वामीत्व कर्तृत्व सेवता नथी तथा तेमां फेरफार करुं एवी आकुळता नथी
पण अंदरमां शान्त वीतरागी स्वरूपमां ठरवा अने पूर्ण वीतरागी थवा मागे छे, स्वसन्मुख
सावधानीने पुरुषार्थ माने छे. पूरेपूरो अंदर निश्चय चारित्रपणे थयो नथी त्यां राग एना क्रममां आवे
छे, पण तेमां निरन्तर हेय बुद्धि छे अने पूर्णता – शुद्धतामां उपादेय बुद्धि होवाथी, स्वसन्मुखताना
बळ अनुसार रागनो अंश आपोआप टळी जाय छे– उत्पन्न थतो नथी.
व्यवहार सर्वथा अभूतार्थ नथी एटले के व्यवहार अमुक भूमिकामां आ जातनो होय छे.
व्यवहार व्यवहारथी आदरणीय छे एम बोलाय पण अंतरमां एनो जराय आदर ज्ञानीने होतो नथी,
केमके सर्वथा सर्व रागनो निषेध करनार स्वसन्मुख ज्ञाताभाव जाग्यो छे तेथी ज्ञानीने चारित्रमां
नबळाई जेटलो राग होवा छतां, ते रागमां वर्तता नथी, रागना वेदनमां ज्ञानी नथी. अल्प नबळाई
छे तेने हेयपणे जाणे छे, नित्य अकषाय स्वभावना जोरमां तेनी गौणता छे.
एकान्त व्यवहारभासीना शास्त्राभ्यास वगेरे धर्म साधन व्यर्थ छे एम सांभळी कोई अज्ञानी शास्त्र
श्रवण मनन अभ्यास अने धर्म छोडी देशे तो प्रमादी स्वच्छंदी थई, पाप बांधी, नर्क निगोदमां चाल्यो जशे.
जे कोई शास्त्रना पठन पाठनथी धारावाही वांच्या करे व्याख्यान आपे परंतु तेनुं ज्ञान
परज्ञेयोमां ज रोकाय तो तेने आत्मानुं ज्ञान कहेवामां आवतुं नथी.
ज्ञानीने शास्त्र वांचन, भक्ति वगेरेनो राग आवे पण ते बधा भावोने ज्ञानी पुण्य माने छे,
त्यारे आ भावोने अज्ञानी धर्म माने छे शुष्कज्ञानी छे ते रागनी रुचिवाळा होवाथी स्वच्छंदमां पापमां
प्रवर्ते छे. अहीं तेनी वात नथी.