Atmadharma magazine - Ank 233
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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... भोंयरा जेवुं हतुं तेमां भगवान बिराजता हता. जेम चिदानंद प्रभुनुं दर्शन करवा माटे
जगतथी जुदा पडीने, अंतरमां ऊंडा ऊतरवुं पडे छे तेम अहीं पण, आ भगवानना दर्शन करवा माटे
जगतना वातावरणथी जुदा पाडीने, आ भोंयरामां ऊंडा ऊतरवुं पडतुं हतुं.. अंदर ऊतरीने मोटा
मोटा त्रण भगवंतोने नीहाळता ज गुरुदेव तो आश्चर्य पाम्या... अहा! जेम चैतन्यदर्शनथी आनंद
थाय तेम गुरुदेवने आ भगवानना दर्शनथी आनंद थयो. गुरुदेव कहे: “अहा! आपणे तो आ बधु
जीवनमां पहेलीजवार जोईए छीए.
गुरुदेव साथे उल्लासभरी यात्रा थई तेथी बेनश्री–बेन वगेरेने बहुज आनंद थयो... ने आ
रीते गुरुदेवना पगले पगले तेमनी साथे यात्रा करता करता, ने देवगुरुनी भक्ति करता करता,
चैतन्यपदनी पूर्णता पामता सुधी सदाय तेओनी साथेज रहीए एवी भावना व्यक्त करी.
नौकाविहारनो नवीन प्रसंग आवतां सौ हर्षित थया.. जाणेके भक्तिनौकामां बेसीने गुरुदेव
साथे सिद्धिधाममां जता होईए एवा उमंगथी भक्तो भक्ति करवा लाग्या. ‘अहा, अनेक जीवोना
तारणहारने आजे हुं तारी रही छुं, एवा गौरवथी ए जडमति नौका डोलती हती, परंतु ए बिचारीने
क्यांथी खबर होय के ते पोते पण आ संतपुरुषना पुण्य–प्रभावे तरी रही छे! अरे, भेदज्ञाननौकावडे
अनंत संसारसमुद्रने तरी जनारा साधकोने एक नानी नदी पार कवी तो शा हिसाबमां छे? खरेखर
ज्ञानीओनी नौका नीराळी छे.
संतो केरी छांयडी.......... एवी मारी नावडी..........
कहानगुरु साथमां.......... जाय सिद्धिधाममां..........
‘अहा, जीवननो ए एक सोनेरी प्रसंग हतो... ए प्रसंगनुं आहलादकारी वातावरण सौ
यात्रिकोना हृदयमां कोतराई गयुं छे. अहा, सिद्धपदनी भूमि प्रत्येक पण साधकोने आवो ऊमंग उछळे
छे, तो साक्षात् सिद्धपद प्रत्येना साधकोना अंतरंग... रंगनी शी वात! खरेखर साधकना भाव अचिंत्य
छे.
सिद्धक्षेत्रना एकांत वातावरणमां एकला एकला टहेलता गुरुदेव घणा भावथी मुनिवरोनुं आ
धाम एकीटसे टगटग नीहाळी रह्या छे, ने एमना हृदयमां उपशांत भावनी ऊर्मिओ जागे छे. जाणे
साक्षात् मुनि भगवंतोना टोळे टोळा नजर समक्ष तरवरता होय एवो प्रमोद तेमनी मुद्रा उपर वर्ती
रह्यो छे. अंतरनी उर्मिओ व्यक्त करतां गुरुदेवे कह्युं: अहा हुं तो आ क्षेत्रमां मुनिओने ज देखुं छुं;
आसपास जाणे मुनिओ ध्यान धरी रह्या होय एवुं अहींनुं वातावरण छे. केवुं सरस. शांतिनुं धाम
छे! भक्तोना उल्लासनुं पण शुं वर्णन करवुं!
श्री राजेन्द्रकुमारसिंहजीए एक सरस भावभीनुं ने विद्वत्तापूर्ण प्रवचन कर्युं. महाराजश्रीए
अहीं पधारीने चार दिवस सुधी जे उपदेश दीधो तेमां घणुं ज अमृत पीवडावी दीधुं छे अने आपणे
पण ते खूब पीधुं छे–हृदयमां भरी लीधुं छे; हवे आ जे उपदेशामृत आपणे भरी लीधुं छे ते आपणी
पासेज रहेशे ने संसारमां सुखदुःख प्रसंगे ते आपणने शांति आपशे, आ पर्याय रहे त्यां सुधी ने
नवीन पर्यायमां पण आ उपदेशनुं मनन करवाथी घणो लाभ थशे. महाराज अपनी बात नहीं कहते,
महाराज तो जिनेन्द्रदेवने जो कहा वही कहते है, पोताने जिनभक्त कहेवडावनारा, महाराजनां
वचननो (के जे जिनेन्द्रदेवना वचन छे तेनो) विरोध कई रीते करी शके?
अहा! सिद्धिधामना शांत वातावरणमां मुनिवरोनी भक्तिनो खूब रंग जाम्यो हतो; भक्तिनी
एवी धून मचावता के, आ क्षेत्रमां अत्यारे मुनिवरोनो विरह छे ए वात पण त्यारे