Atmadharma magazine - Ank 233
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष २० : अंक पमो] तंत्री : जगजीवन बावचंद दोशी [फागण : र४८९
सहज ज्ञातापणामां स्वाभाविक सुख.
आ आत्मा सुखस्वभावी छे एम अनुभव कर्या पछी दुःख, भय,
अपवित्रता, आत्महिनता अनेत्र प्रमादादिपाप एत्रमांनो्र एक अंश पण
सत्पुरुषो सहन करी शकता नथी. पण तेने ज्ञान, विवेक, वैराग्य द्वारा शीघ्र छोडवा
ज मागे छे. दोष दुःखनो आधार शरीर नथी पण जीवनी पोतानी भूल छे.
स्व–परवस्तुनुं स्वरूप, हित–अहितनुं स्वरूप जेम छे तेम जाणी
स्वसन्मुख जाणनार रहे शरीरादिकने भला बूरा न माने तो्र क्रोधादि स्वयं उत्पन्न
थता नथी पण सहज ज्ञानधारा अनुसार स्वाभाविक सुख उत्पन्न थाय छे.
(ज्ञानार्णवमांथी)
कोन कोनी समता करे सेवे पूजे कोण,
कोनी स्पर्शास्पर्शता ठगे कोईने कोण;
कोण कोनी मैत्री करे कोनी साथे कलेष,
ज्यां देखुं त्यां सर्व जीव शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश. (योगसार दोहा)
गर्भथी लईने छेक मरणांत सुधी आ शरीरनी सेवामां निरर्थक कलेष,
अपवित्रता, भय, तिरस्कार अने पापथी भरपुर परिणाम थाय छे एम
विचारीय पवित्र शाश्वत ज्ञानस्वरूपने उत्तम–मंगळ अने शरणरूप जाणी तेमां ज
रुचिवडे, विडंबणारूप एवो शरीर प्रत्येनो स्नेह सर्वथा तजवा योग्य छे.
(शरीरने सुखदुःख नथी, शरीरथी सुखदुःख नथी.)
निर्मोह, अशरीर नित्य ज्ञानानंदमय एवा आ आत्माना आश्रयवडे सर्व
विरुद्धभावो भिन्नत्व जाणीने नाशवंत अने केवळ दुःखनुं आश्रयस्थान एवा आ
शरीरनुं ममत्व छोडवामां आवे तो आ आत्मा खरेखर मुक्तदशाने केम न पामे?
स्वसन्मुखताना बळथी निर्मळद्रष्टि प्राप्त थाय छे. प्रत्यक्ष अपूर्व मुक्तिनो अंशे
आनंद अहीं ज अनुभवाय छे. अहो! एवो कोण मूर्ख छे के जे देहादि प्रत्ये
ममत्व छोडवामां अने स्वरूप ग्रहण करवामां प्रमाद करे? शरीर तो खरेखर दूष्ट
मनुष्यना मेळाप जेवुं छे.
(आत्मानुशासनमांथी)