छे, परंतु लिंग मोक्षमार्ग नथी, कारण के अर्हंतदेवो देह प्रत्ये निर्मम वर्तता थका लिंगने छोडीने, दर्शन
ज्ञान चारित्रने ज सेवे छे.
योग्य नथी.
संप्रदाय ना वेषने ज ग्रहण करे छे.
तेनुं ग्रहण करे छे ते ग्रहण करवुं अयोग्य छे. कोई कहे, प्रथम शुभभावमां आवे पछी निर्मळ
श्रद्धा–ज्ञान करी शके ने? माटे प्रथम आवो व्यवहार जोईए ज तो तेने तत्त्वज्ञान प्रत्ये अरुचि
छे. भगवाने तो सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन ज आत्महित माटे प्रथम पगथीयुं कह्युं छे तेनो तेओ
विरोध करनारा छे.
शरीर अने शुभरागनी ममतानो त्याग करी अर्थात् प्रथम श्रद्धामां अने पछी चारित्रमां तेना
आश्रयनो त्याग होवाथी, तेना आश्रयना त्याग वडे, तेमने तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
मोक्षमार्गपणे उपासना जोवामां आवे छे. वच्चे शुभ व्यवहार निमित्तपणे होय छे पण तेने छोडवाथी
मोक्षमार्ग छे अर्थात् तेनो आश्रय छोडवाथी मोक्षमागछे. शुभराग तो बाह्य निमित्तरूप छे जो ते
स्वयंमोक्षमार्ग होय तो भगवंतोए तेनो आश्रय छोडी वीतरागभावरूप मोक्षमार्गनो उपदेश केम
आप्यो छे? व्यवहारनो आश्रय, निश्चयनो आश्रय कर्या विना छूटतो नथी. आ उपरथी ए ज सिद्ध
थाय छे के द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग नथी पण पराश्रयथी निरपेक्ष, आत्माश्रित दर्शन–ज्ञान–चारित्र ज
(वीतरागभाव ज) मोक्षमार्ग छे एम सिद्ध थाय छे.