फागण: २४८९ : ३ :
गाथा ४१०. मुनिनां अने गृहस्थनां लिंगो ए मोक्षमार्ग कहे नथी. दर्शन–ज्ञान–चारित्रने
जिनदेवो मोक्षमार्ग कहे छे.
नियमसार गा. १३४ मां कह्युं छे के श्रावक अने श्रमण बेउ–वीतरागभावरूप शुद्ध रत्नत्रयनी
भक्ति करे छे.
कळश नं. २२०मां कह्युं छे के ‘जे जीव भवभयना हरनारा आ शुद्ध सम्यक्त्वनी, शुद्ध ज्ञाननी
अने चारित्रनी भवछेदक अतुल भक्ति निरंतर करे छे, ते काम क्रोधादि समस्त दुष्ट पाप समूहथी
मुक्त चित्तवाळो जीव–श्रावक हो के संयमी हो– निरन्तर भक्त छे, भक्त छे.
अहीं समयसारमां पण स्पष्ट कहे छे के द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग नथी; कारण के ते शरीराश्रित
होवाथी परद्रव्य छे, व्रत, भक्ति आदि शुभ भाव पण शरीराश्रित होवाथी परद्रव्य छे, आस्रवतत्त्व छे,
अनात्मा छे. अजागृतभाव छे, उपरान्त चैतन्यनी जागृतिने रोकवावाळा छे माटे हेय छे.
सम्यग्द्रष्टिना शुभभावरूप व्यवहार रत्नत्रय छे ते पण परद्रव्यना आश्रयरूप् आस्रव तत्त्व छे,
अनात्मा छे, शुद्धभावथी विरोधीभाव छे; तेथी परद्रव्य छे, मात्र आत्माश्रित दर्शन–ज्ञान–चारित्र ज
मोक्षमार्ग छे; कारण के तेओ स्वद्रव्य छे.
प्रश्न– श्रावकने मुख्य शुभभाव छे ते परंपराए मोक्षनुं कारण थाय छे– एम प्रवचनसारना
चरणानुयोग अधिकारमां कह्युं छे– एनो अर्थ शुं?
उत्तर– मोक्षनुं अने मोक्षमार्गनुं खरुं कार तो स्वद्रव्य आश्रित वीतरागभाव ज छे, राग नहीं
परंतु नीचली दशामां स्वसन्मुखतारूप पुरुषाथृ मंद होय छे ने अशुभ टाळे छे, शुभराग बाकी रह्यो
तेने पण टाळीने ज मोक्ष पामशे अने आ जातनो राग त्यां निमित्तरूपे होय छे तेना अभावपूर्वक
मोक्ष पामशे एम बताववा माटे ए जातना शुभ व्यवहारने परंपरा मोक्षनुं कारण कहेल छे; अने ते
असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे.
त्रणे काळे अबाधित नियम छे के स्वद्रव्याश्रित मोक्षमार्ग छे. आत्माश्रित निर्मळ पर्यायरूप
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते मोक्षमार्ग छे, बीजो मोक्ष मार्ग नथी.
व्यवहार तो परद्रव्याश्रित रागभाव छे. उपदेशमां शास्त्रमां व्यवहारनी अने बाह्य प्रवृत्तिनी
वात आवे त्यां रागनी रुचिवाळा जीव राजी थई जाय, ने कहे के हां... हवे अमारी मानेली वात
आवी–निमित्त–व्यवहार जोईए, भले श्रद्धा निश्चयनी राखो, पण प्रवृत्तिमां आवो व्यवहार जोईए–
एम माननार परद्रव्यना आश्रये धर्म (संवर–निर्जरा) माने छे, पण छे नहीं; माटे पराश्रयमां
रुचिवाळा आत्महित करी शके ज नहीं.
प्रथमथी ज द्रष्टि अने चारित्रधर्म वीतरागभाव ज छे–ए वातनो निश्चय तो लावे – जेनी
जरूर लागे तेने मेळव्या विना रहे नहीं–रुचि अनुयायी वीर्य.
निश्चयना ज्ञान साथे व्यवहारनयना विषयने जाणनारा ज्ञानने जोडवुं तेनुं नाम व्यवहारनुं
प्रयोजन छे. गुणस्थान अनुसार स्वद्रव्यना आश्रये अंशे शुद्धि था्य छे, ने अंशे अशुद्धि (शुभ अशुभ
भावो) होय छे तेने ते प्रमाणे जाण, तेनुं नाम व्यवहारनय जाणेलो प्रयोजनवान छे.
भावार्थ– लिंग छे ते देहमय छे, देह पुद्गलमय छे; माटे आत्माने देह–देहनी क्रिया नथी. रागनी
क्रिया आत्माने आश्रित नथी, रागनी क्रिया मोक्षमार्ग नथी, अर्थात् ते स्वयं अचेतनभाव छे–तेमां
चैतन्यनी जागृतिनो अंश कदी पण होई शके नहीं, माटे ते परद्रव्य छे, परमार्थे अन्य द्रव्यने अन्य
द्रव्य कांई करी शकतुं नथी–ए न्यिम छे. (४१०)