: ४ : आत्मधर्म: २३३
आगम अने
अध्यात्म रहस्य
(स्व. कविवर बनारसीदासजी रचित ‘परमार्थ वचनिका’
उपर परमउपकारी पूज्य गुरुदेवना प्रवचन.)
सोनगढ ता. १४–१–६३
जरा झीणी वात छे. परमार्थ वस्तु स्वरूप कई रीते छे ते स्पष्टपणे अनुभवमां आवे एवुं
खास प्रकारे श्री बनारसीदासजीए कह्युं छे.
जगतमां त्रणे काळे अनंता जीवद्रव्य छे, तेमां कोई पण एक संसारी जीव द्रव्य, तेना अनंत
गुणो अनंत पर्यायो, एक एक गुणना असंख्यात प्रदेश छे तेटला प्रमाणमां द्रव्य प्रमाण तेनी सत्ता
अने पहोळाई लंबाईरूप स्वक्षेत्र छे. जीव एटले आत्मा वस्तुपणे द्रव्य, तेमां ज्ञान, दर्शन, सुख,
चारित्र, वीर्यादि गुणो संख्याए अनंता छे; दरेक गुणो आत्माना असंख्य प्रदेशमां (स्वक्षेत्रमां)
व्यापक छे. अनंतागुणो आत्माने आश्रये छे. जेटलुं क्षेत्र आत्मानुं छे तेटलुं ज क्षेत्र=असंख्य प्रदेशो
बधांय गुणना छे. आत्मा स्वद्रव्य क्षेत्र काळ अने भावरूप सामर्थ्यथी केवडो मोटो छे तेनी वात छे.
आत्मा पण अनंत पर वस्तुनी मध्यमां अनंत अन्यत्वपणे टकी रहे छे एवो सर्व प्रकारे स्वतंत्र छे.
अहीं १ थी १४मा गुणस्थान सुधी अशुद्ध, मिश्र, अने शुदध अवस्थारूप व्यवहारना त्रण भेद
पाडेल छे. अगाउ एक आत्मामां आ वात घटावता हता पण अहीं एम नथी. अहीं संसारी दशामां
ज्यां जेने लागु पडे ते सर्व जीवनी वात छे.
एक आत्मा, तेना अनंत गुणो, एक एक गुण असंख्य प्रदेशी (कोईनो प्रदेश जुदो नथी), एक
एक प्रदेशमां एक क्षेत्रावगाह संबंधरूपे अनंत कर्म वर्गणा, एक एक कर्म वर्गणामां अनंत अनंत
पुद्गळ परमाणुओ, एक एक पुद्गळ परमाणुओ, एक एक पुद्गळ परमाणुं एनां अनंत गुणो अने
पर्यायो सहित बिराजमान छे. आ प्रमाणे एक संसार अवस्थित जीवपिंडनी अवस्था छे. ए ज
प्रमाणे अनंता जीवद्रव्य सपिंडरूप संसार दशामां जाणवां.
निगोद एकेन्द्रिय एटले स्थावर साधारण वनस्पतिकायिक तेना असंख्य शरीर छे. अंगुलना
असंख्यमां भागमां पण असंख्य शरीर, तेमांथी एक शरीरमां रहेला जीवोनी संख्या अनंती छे– जे
अनंता सिद्ध परमात्मा थई गया तेनाथी अनंतगुणा छे. दरेक जीवने स्वतंत्र असंख्य प्रदेशरूप स्वक्षेत्र
छे, तेनेत्र दरेक प्रदेशे अनंती कार्मण वर्गणा, एकेक कार्मण वर्गणामां अनंत अनंत पुद्गल परमाणुओ
तेनां अनंत गुण, अनंत पर्याय सहित छे. ए प्रमाणे अनंत जीवद्रव्य बंध पर्यायमां एक क्षेत्रावगाह
संबंधरूप जाणवा. एक–एक जीव संसार दशामां अनंत अनंत पुद्गळ द्रव्यथी संयुक्त मानवुं सर्वज्ञ
वीतराग कथित शास्त्र विना