: ६ : आत्मधर्म: २३३
छये कारक स्वतंत्र छे. जुओ पंचास्तिकाय गा. ६रनी टीका.) जीव राग करे माटे तेने (कर्मने) बंधावुं
पडे अने राग रहित थाय तेथी कर्मने छूटवुं पडे एम नथी.
प्रश्न– एक परमाणु छूटो हतो ते स्थूळ स्कंधरूपे आकार धारण करे छे तेमां स्पर्श अने आकार
स्थुळता पणे एक छे ने? तो तेना स्पर्शगुणनी पर्याय अने स्कंधरूपे स्थूळ पर्याय एक थई के नहीं?
उत्तर:– ना. निश्चयथी तो त्यां पण जुदापणे ज तेना दरेक गुणनी दरेक पर्याय ते प्रकारे वर्ते छे.
व्यवहारमां स्थूळपणे पोते थयो छे ते पोतानी शक्तिथी ज थयो छे, परनीय शक्तिथी नहीं– एम जीव साथे
संसार अवस्थामां कार्मण वर्गणारूपे थया छे ते दरेक परमाणु पोताथी ज बंधन मुक्ति शक्तिथी प्रवर्ते छे.
हवे जीव द्रव्यनी अनंती अवस्था; तेमां त्रण अवस्था मूख्य स्थापी. प्रथम गुणस्थानथी मांडीने
१४मा सुधीनी अनंत अवस्था लेवी तेमांथी (१) अशुद्ध अवस्था–मिथ्याद्रष्टिनी, (२) शुद्धाशुद्धरूप
मिश्र अवस्था–मिथ्याद्रष्टिनी, (३) शुद्ध अवस्था १३–१४मा गुणस्थानवर्तीनी. ए त्रणे अवस्था
संसारी जीव द्रव्यनी जाणवी. संसारदशाथी अतिक्रान्त भगवान सिद्धोने अनवस्थितरूप कहीए छीए.
प्रश्न:– परमाणुं चळाचळरूप एटले शुं?
उत्तर:– जीव साथे एक क्षेत्रावगाहरूपे थवाने आव्या तेमां टकवानी अपेक्षाए अचळ, छूटवा–
जवानी अपेक्षाए चळ.
हवे ए त्रणे अवस्थानुं वर्णन–ज्यां सुधी मिथ्यात्व अवस्था छे त्यांसुधी शुभाशुभमां एकता
बुद्धिवान अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य अशुद्ध व्यवहारी छे ते अनादिरूढ, व्यवहारमां विमूढ अने प्रौढ
विवेकवान निश्चयमां अनारूढ होवाथी आगम पद्धतिमां–पुण्यमां धर्म माने छे, परने पोतानुं माने छे.
द्रव्य ते निश्चय एकरूप छे अने तेनी पर्याय ते व्यवहार एवी शैली छे. द्रव्य साथे पर्याय अशुद्ध
छे अने तेमां आत्म जाग्रतिरूप अंशे शुद्धता नथी तेथी अशुद्ध निश्चय स्वरूप तेनुं द्रव्य छे. द्रव्य
अपेक्षाए जीव द्रव्य सदा शुद्ध छे, अशुद्ध नथी छतां द्रव्यने अशुद्ध कहेवुं ते व्यवहारथी छे.
अनादिकाळथी एकेन्द्रियथी मांडीने जैनमतमां महाव्रतधारी नग्न दिगंबर द्रव्यलिंगी साधु नवमी
ग्रैवेयक सुधी गयो तो पण ते मिथ्याद्रष्टिने एकलो अशुद्ध व्यवहार छे. एकला राग उपर द्रष्टि अने
तेमां एकता अनुभवे छे.
(२) सम्यग्द्रष्टि थतां मात्र चोथा गुणस्थानथी बारमा सुधी मिश्र निश्चयात्मक जीव द्रव्य मिश्र
व्यवहारी छे. अनादिथी राग अने ज्ञायकनी एकता बुद्धि हती; भेदज्ञानवडे ग्रंथीभेद थतां, सत्यस्वरूप शुद्ध
ज्ञायकमूर्ति छुं, पराश्रयनी श्रद्धा रहित, राग रहित छुं– एवुं भाव भासन थयुं; निरंतर अखंड ज्ञान
चेतनाना स्वामीत्वपणे ज परिणमन शरू थई गयुं. चारित्रमां अंशे स्वरूपाचरण चारित्र होवा छतां अंशे
सरागता (बाधकभाव) अने अंशे वीतरागता (–साधकभाव) एम मिश्र भाव ४ थी १२ गुणस्थान सुधी
छे ए साधकदशानो काळ असंख्य समय छे, तेमांथी कोई मिथ्याद्रष्टि थई जाय तो ते मिश्र व्यवहारी न रह्यो.
सादि मिथ्याद्रष्टिपणे रहेवानो उत्क्ृष्ट काळ अर्ध पुद्गळ परावर्तन ते अनंत समय छे. द्रव्य ते
त्रिकाळ शुद्ध निश्चळ, तेनी पर्यायमां मिश्र–अंशे शुद्धाशुद्धपणुं, तेमां रहेलो जीव मिश्र व्यवहारी छे.
अंशे शुद्धता ते संवर–निर्जरा, अने ते ज पर्यायमां अंशे अशुद्धता ते आस्रव अने बंध तेथी
मिश्र व्यवहारी छे.
मिथ्याद्रष्टि तो पर्याय छे. सामान्य द्रव्य तो शुद्ध छे, निश्चय छे– तेने अशुद्ध केत्रम कहेवामां आव्युं
के ते जीव एकला राग, द्वेष, अज्ञानमां एकताबुद्धि वडे, शुभाशुभ रागमां ज रोकाणो छे; हजारो शास्त्रो