चैत्र : २४८९ : ७ :
ज्ञायक परिणमे छे एम नथी; तेमां एम पण आव्युं के अंतःतत्त्व ज्ञायक प्रभु अखंडानंद वस्तु स्वभाव
तो त्रणेकाळे कषायचक्ररूपे थतो ज नथी तेथी पुण्यपापमय औदयिकभाव तेमां नथी. औपशमिक,
क्षायोपशमिक अने क्षायिकभाव अनित्य पर्याय छे, ते बाह्यनो भाग छे, ते व्यवहारनयनो विषय छे
खरो पण ते अंतरंग ज्ञायक स्वरूपमां नथी. प्रगटदशामां उपर तरता विकार भाव देखाय ते रूपे
ज्ञायकभाव परिणमतो नथी.
चोथा गुणस्थानथी स्वसत्तावलंबी द्रष्टिथी अखंड ज्ञायक स्वरूप आवुं स्वतंत्र छे एम ज्ञानी
जाणे छे. तेना परिणमनमां स्वसन्मुख ज्ञानधारा वधती जायछे. ज्ञायकना परिणमनमां औदयिक आदि
भेदनी अपेक्षा नथी. ज्ञायक ते शुद्ध ज्ञायक ज छे. आवुं स्वसन्मुख थयेलुं स्वावलंबी ज्ञान अभेद
ज्ञायकपणे परिणमे तेने शुद्ध कहीए. (१) ज्ञायक ते अज्ञायक=अचेतन आस्रवतत्त्वरूपे थतो नथी. (र)
प्रगट पर्यायमां पण अभेद ज्ञान ज्ञानपणे छे. ज्ञेयोनी उपाधि=अपेक्षा तेने नथी. (३) अंतमुर्खपणे
एटले परथी भिन्न निरपेक्षपणे सेववामां आवतो ज्ञायकने एकलो शुद्ध कहीए. निमित्त अने रागनी
अपेक्षा विना एकलुं परिणमे तेने आत्मानुं ज्ञान कहीए. ११ अंगशास्त्र भण्यो तेथी आत्मा जाण्यो छे
एम नथी. जेणे आत्माने परथी भिन्न निरपेक्ष ज्ञायकपणे जाण्यो नथी तेणे स्व–पर, सापेक्ष–निरपेक्ष,
निश्चय–व्यवहार, निमित्त–उपादान, होय–उपादेय, वगेरे कांई जाण्युं नथी. पराश्रयनी श्रद्धा छोडी,
स्वसन्मुख थई, अखंड ज्ञायकपणे थनारो ज्ञायक छुं एम जाणनारने जाण्यो तेणे बधुं जाण्युं.
केवळज्ञानीनुं पेट जाण्युं. केवळज्ञान केम प्राप्त थाय तेनी कळा जाणी. जो ए कळा नथी जाणी तेनुं बधुं
धूळधाणी छे, व्यर्थ छे. शास्त्र सन्मुखनी कळा ते तारी जागृतिनी कळा नथी. ज्ञायक स्वसत्तामां
स्वावलंबी द्रष्टि अने स्वसंवेदन ज्ञानदशा प्रगट करी ते केवळज्ञान लेवानी साची कळा छे. शिष्यना प्रश्न
अनुसार गा. २पमां श्री आचार्यदेवे कहेलुं के “एवा एकतत्त्व–विभक्त आत्माने” हुं, आत्माने आश्रित
उत्पन्न थयेलां निज वैभववडे देखाडुं छुं. देखाडुं ते रीते स्वानुभव प्रमाणथी स्वीकार करजो एम निःसंदेह
सत्य उपाय बतावनार अने समजनारनी वात छे. टीकामां कह्युं के सर्वज्ञ कथित आगमज्ञानरूपी प्रमाण,
अति निस्तुप निर्बाध युक्तिरूप प्रमाण तथा श्री महावीर प्रभुश्री परंपराए आवेला अमारा गुरु
पर्यंत, तेमनाथी प्रसादरूपे अपायेल जे शुद्धात्मतत्त्वनो अनुग्रहपूर्वक उपदेश तथा पूर्वाचार्यो अनुसार
उपदेश तेने प्रमाण करीने अने चोथुं स्वानुभव प्रमाण ते द्वारा अमे शुद्धात्मानी प्राप्ति करी छे (पण कर्म
प्रकृतिना ग्रन्थ क््यां भण्यो?) स्वाश्रय वडे मुख्य वस्तुनी द्रष्टिथी एकला ज्ञायकने परथी भिन्नपणे
जाणता बधुं जाण्युं. अंतरनो विकास तो अंतमुर्ख द्रष्टि–ज्ञान अने एकाग्रताथी ज थाय छे. आवुं
निरपेक्ष तत्त्व छे तेनो प्रथम ज स्विकार अने आश्रय करवो जोईए. निमित्तपणे व्यवहारना भेद
जाणवा माटे व्यवहार बराबर छे पण सर्व भेदने गौण करनार शुद्धनयद्वारा स्वसन्मुख थई, अभेद
ज्ञायक छुं एनुं निर्विकल्प अनुभव सहित भान थवुं ते सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन बीज छे, आत्मा
एकान्त बोधि बीज ज्ञायक स्वरूप छे. ते बीजमांथी ऊछळीने ज्ञान थयुं ते आत्मानी अनुभूति छे जे
शुद्धनय स्वरूप छे; तेनो विषय शुद्धात्मा त्रिकाळ एकरूप पूर्ण छे. प्रथम महाप्रश्न हतो के प्रभु, आवो
शुद्धात्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए– ए प्रश्नना उत्तरमां छठ्ठी गाथामां, केवळज्ञानीने तथा
निर्ग्रंथ संतोने शुं कहेवुं छे ते स्पष्ट करी अद्भूत वात कही छे.
भावार्थ– वस्तुपणे जोतां, आत्मा बंधनने अशुद्धतारूप संसारने स्पर्शतो नथी, विभावरूपे
परिणम्यो नथी; पण वर्तमान पर्यायमां अशुद्धपणुं तो पोताने भूली पराश्रयथी उत्पन्न करवामां आवे
छे. आत्मानुं मूळ स्वरूप कदी अशुद्ध होई शके नहीं. ध्रुव स्वभावना संगथी अशुद्धतानो राग, शास्त्र
तरफनो झुकाव, महाव्रत ए पण शुभास्त्रव छे, राग छे, परद्रव्य सन्मुख जेटली वृत्ति ऊठे छे ते बधुं
अशुद्धपणुं छे, त्यां मूळ द्रव्य अन्य द्रव्यरूप अशुद्धपणे कदी थतुं नथी. त्रिकाळी अंशी वस्तुने भूली मात्र
एक समयनी पर्यायमां भूल पोते उत्पन्न करे तो