Atmadharma magazine - Ank 234
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २३४
जणातुं होवाथी ज्ञेयाकरे ज्ञान थयुं छे पण तेथी परसत्तावलंबी ज्ञान नथी, पण निरन्तर स्व–
सत्तावलंबी छे. एकला ज्ञानयकने जोतां पोते ज्ञायक ज छे. ज्ञेयाकार जेवुं ज्ञान नथी पण ज्ञायकना जेवुं
ज्ञान छे. व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान अने महाव्रतादिकराग छे माटे ते रूपे ज्ञायकभाव परिणम्यो छे एम
नथी, पण व्यवहार व्यवहारपणे छे तेम ज्ञेयाकारो ज्ञानमां जणाय छे त्यां जाणवारूपे ज्ञाननो ज
विकार काम करे छे, पण तेमा व्यवहार ज्ञाननी अपेक्षा आवती नथी. अनंत गुणनो अखंड रस एवो
भगवान एटले सहज ज्ञानवान आत्मा अंतरना स्वावलंबी ज्ञानथी पोताने (ज्ञानने) जाणे छे.
परने जाणे छे, छोडे छे ते कहेवा मात्र छे. ज्ञेयोथी ज्ञान नथी, ज्ञेयो जणातां नथी, पण ज्ञाननी
योग्यतानुसार स्व–ज्ञानाकार जणाय छे. शुभराग पण आस्रव छे, अजाग्रतभाव छे, ज्ञान थी विरुद्ध
छे. रागमां ज्ञाननो अंश जराय नथी, तेथी ते अचेतन छे. ते व्यवहारने जाणे तेटलुं ज्ञान व्यवहार
ज्ञेयनी अपेक्षाथी प्रकाशे छे एम नथी. आम निरपेक्ष ज्ञायकमां द्रष्टि थई, त्रिकाळ आवो छुं एम भान
थयुं तेने मुक्ति थई छे. द्रव्यनी पर्याये पर्याये मुक्तिनुं स्पर्शन, संवेदन चालु थई गयुं ते ज्ञानी छे
अहो! परम तत्त्व ज्ञायकने स्वभावथी अनुभववानी अपूर्व द्रष्टि बतावे छे. जेम दिपक घटपटने
प्रकाशवा काळे, घट पटादिनी अपेक्षाथी प्र्रकाशे छे एम नथी, तेम रागादि ज्ञेय छे माटे ज्ञायकने तेनी
अपेक्षा छे एम नथी. पण घटपटने प्रकाशवाकाळे दिपक दिपक ज छे. दिपक स्वयं प्रकाशे छे अने
पोतानी प्रकाशमय ज्योति–शिखाने प्रकाशवा काळे पण दिपक ज छे, एम ज्ञायकनुं समजवुं.
ज्ञायक शुभाशुभने जाणे छे ते तो ज्ञाननी स्वच्छताने जाणता परज्ञेयो जणाय छे तेथी
रागादिरूपे ज्ञायक परिणम्यो छे एम नथी. ज्ञायकवस्तु रागादिना अकारणरूपे ज्ञातापणे ज रहे छे.
वस्तु रागरूपे थई नथी. प्रगट पर्यायमां शुभाशुभ राग अजाग्रतभाव ज्ञेयपणे जणाय छे तेथी ज्ञायक
ते रूपे वर्तमानदशा पूरतो थाय छे के नहीं? ना, रागने जाणता, पोताने–सहज ज्ञानने ज जाणे छे;
पोतानी ज्ञायकता ज जणाय छे अहो! आवो स्व–सन्मुख ज्ञायकभाव ते हुं छुं एम पोते अनुभवे
त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे. स्वसंवेदन ज्ञानवाळो थयो, पछी ज चारित्रनी गणतरी थाय; एकडा
विनाना मींडानी गणतरी शुं? सहज ज्ञानमां स्वसत्तामां प्रकाश पूंज छुं, तेमां पराश्रयना भेद रहित
एकत्वनी द्रष्टि पछी व्यवहार रत्नत्रयनी वृत्ति ऊठे छे, पण ते रूपे ज्ञान छे ज नहीं; पण रागथी जुदो,
सर्व निमित्तनी अपेक्षारूप पराश्रयना भेदथी मुक्त एटले जुदो छुं, एम ज्ञान ज्ञानने जाणे छे. प्रश्न:–
ईन्द्रियो तथा रागादि निमित्त छे तो तेनुं ज्ञान तो कर्युं के नहि? ना, केमके तेने जाणवानी अपेक्षा
ज्ञायकमां नथी, एवो निरपेक्ष अर्थात् सहज ज्ञान स्वभावी ज्ञानमय कर्त्ता–कर्मथी अभेद एकला
एकला ज्ञायकनो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे. पर्याय भेदनी वात गौण थई जाय छे. हेय तत्त्वने हेय
करवु पडतुं नथी, स्वसन्मुखतानुसार हेय थतुं ज जाय छे. ध्रुव ज्ञायकपणे जाग्यो त्यां ज्ञान ज एवुं
जाणे छे के शरीर, शास्त्र, वाणी अने विकल्पथी जाणवानी अपेक्षा राखे एवो ज्ञा्यक नथी.
गणधरदेव श्री तीर्थंकर भगवाननी सभामां कायम होय छे, अने सांभळे छे ने? ना, ते
पोताना ज्ञानने ज जाणे छे, तेमां रागनी, वाणीनी अपेक्षावाळुं ज्ञान छे एम नथी. पांचमी गाथामां
कह्यो ते एकत्व विभक्त आत्माने अहीं निरपेक्ष एकलो ज्ञायक कह्यो छे ते सर्व अवस्थामां अखंड
ज्ञायक स्वभाव छे एम ध्वनि ऊठे छे. आ तो महान रचना छे, मूळ मंत्रो छे. सर्वज्ञ परमात्माना
पाडोशी आचार्यदेव चारित्रमां–अनुभवमां आवीने, आवीने, परम परिणामिक भावरूप ज्ञायक
स्वभावनी वात करे छे. पराश्रयनी द्रष्टि दूर करी, स्वयंसिद्ध आत्म द्रव्यने ज्ञायक स्वभावपणे अनुभवे
छेके परथी भिन्न, आवो निरपेक्ष ज्ञायकभाव कर्त्ता–कर्मना भेद रहित, परथी भिन्न एटले परथी
ज्ञायकपणे ज्ञायकनो पोताने अनुभव होवाथी शुद्ध कहीए. अहीं शुद्धनयना विषयभूत आत्माने परम
पारिणामिकभावे ज्ञायक कहेवो छे तेमां कर्मना उदयादिनी अपेक्षा राखीने