चैत्र : २४८९ : प :
अपेक्षा नथी. ज्ञानाकार पोताथी ज छे. परपदार्थ, प्रकाश ईन्द्रिय, शुभराग आदि परनी अपेक्षाथी ज्ञान
परिणमतुं ज नथी. जेम दिपक घटने प्रकाशवा काळे दिपक ज छे, स्वने प्रकाशवा काळे पण दिपक ज छे
तेने परनी अपेक्षा नथी. तेम ज्ञायक जिन शक्तिथी अखंड पूर्ण छे, निरपेक्ष छे, तेनुं स्व सत्तावलंबी
ज्ञान शुभाशुभ विकल्परूपे थयुं नथी. विकल्पकाळे पण विकल्पनी अपेक्षाथी परिणम््युं छे एम नथी,
पण स्वयंज्ञायकनी एक ज्ञायकपणे ज प्रसिद्धि करे छे के ज्ञायक सर्व अवस्थामां एकरूप ज्ञायक ज छे;
आ निश्चय छे, सत्यार्थ छे, यथार्थ छे, वास्तविक छे. ते सिवाय बीजानी अपेक्षा बताववी ते व्यवहार
छे, असत्यार्थ छे, आरोपीत छे.
व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनो राग ज्ञेय छे अने तेने जाणवारूपे परिणमतुं ज्ञान ते रागरूपे
जणायुं नथी पण ज्ञायकने अखंड ज्ञायकपणे प्रसिद्ध करतुं जणाय छे. सविकल्पकाळे के
स्वरूपप्रकाशनकाळे आत्मा ज्ञायकपणे जणायो छे ते ते छे, अर्थात् अनादि अनंत ध्रुव
पारिणामिकभावपणे ज्ञायक ज छे. आ सम्यग्दर्शननो विषय छे. तेना आश्रये ज स्वानुभव अने
सम्यग्दर्शन थाय छे.
सम्यग्द्रर्शन पछी ज चारित्र आवे; एना विना गमे ते करे पण तेनाथी आत्मानुं चारित्र केवुं?
शुभरागरूप महाव्रतथी आत्मामां रमणता थती नथी; पण शुद्धनयना विषयरूप भूतार्थना आश्रयथी ज
आत्मामां निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान–रमणतानुं उपजवुं, वधवुं अने टकवुं थाय छे. ज्ञानीने स्वद्रव्यना
आलंबनना बळथी ६–७ गुणस्थानने योग्य चारित्र होय तो तेनी पर्यायने योग्य व्यवहार–विकल्प
आवे छे; तेने जाणे छे के ते ज्ञेयपणे निमित्त छे, हेय छे. व्यवहार विकल्पने जाणवानी अपेक्षाए ज्ञानमां
ज्ञेयाकार पर्याय थई छे ते स्वावलंबीपणे ज्ञायकमां अभेद थईने थई छे तेथी स्वभाव द्रष्टिथी जोतां
ज्ञायक दरेक काळे ज्ञायक ज छे. स्व–पर ज्ञेयने जाणवा छतां एकरूप ज्ञानभावमां कर्त्ता कर्मनुं अभेदपणुं
होवाथी, ज्ञेयकृत उपाधि ज्ञायकने लागु पडती ज नथी. ज्ञेय आव्युं माटे ज्ञायक छे एम नथी. ज्ञाननी
निर्मळ दशा थई तेमां कोई परनी अपेक्षा–कारणपणुं आवतुं ज नथी. पोते ज जाणनारो, जाणवारूपे
परिणमनारो पोते, माटे कर्त्ता पोते छे अने पोताने ज अभेद पर्यायरूपे जाण्यो छे माटे पोते ज कर्म छे.
अहो! श्री समयसार शास्त्र १४ पूर्व १र अंगनुं रहस्य भरीने वर्तमानमां आव्युं छे; तेनी दैवी अद्भूत
टीका भरतक्षेत्रमां न भूतो न भविष्यति। महाविदेहमां तो साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा बिराजे छे, तेनी
शी वात? पण मुख्य–प्र्रधान ज्ञायक स्वरूप आत्माने तेनी सर्व अवस्थामां एकरूप व्यापक अने रागथी
तथा परथी निरपेक्ष, निराळो आत्मा बतावनार आ अद्भूत शास्त्र छे, कोई प्रकारे केवळीना विरह
भूलावे एवुं परमागम शास्त्र छे. अहो! तुं कोण? तने शुद्ध जाण्यो केम कहेवाय?
शुद्ध एटले समस्त परभावोथी भिन्न, रागादि विभावपणे थयो ज नथी, एवो त्रिकाळी ध्रुव
स्वभावपणे आ आत्मा ज्ञायक छे एम स्वसन्मुख ज्ञान वडे सेववामां आवतां तेने शुद्ध जाण्यो कहेवाय
छे. ज्ञायक पोते पोताने जाणे छे ते निश्चय छे परने जाणे छे, व्यवहार–निमित्तने जाणे छे एम कहेवु ते
उपचार कथन छे. आत्मा पोताना स्वपर प्रकाशक ज्ञाननी स्वच्छताने जाणे छे, दर्शन ज्ञानमय पोतानी
र्प्यायने जाणे छे, दर्शन ज्ञानमय पोतानी र्प्यायने जाणे छे. परने जाणे ते तो उपचरित सद्भूत
व्यवहार नयथी छे. रागने जाणतो नथी, शुभरागने लीधे जाणे छे एम नथी. निमित्त अने रागनी
ज्ञानने अपेक्षा नथी, एवो निरपेक्ष एकरूप शाश्वत ज्ञायकपणे सेववामां अनुभवमां आवतो शुद्ध कहीए
छीए. भूमिकानुसार शुभाशुभभाव आवे खरा पण ते रूपे परिणमे तेने ज्ञायक कहेता नथी.
पोते ज्ञेय अखंड स्वज्ञेय छे. विशेषमां पोताना ज्ञाननो विकास ते स्व–ज्ञेय छे. पर ज्ञेयने
परपणे जाण्युं एटले एवा पोताना ज्ञानने जाण्यु छे पण तेथी निमित्त अथवा रागने अवलंबीने ज्ञान
थयुं छे एम नथी खरेखर स्व सन्मुख थयेलुं ज्ञान राग सामे जोतु नथी; ज्ञान ज्ञानने जाणे छे. राग
बहिर्मुख छे तेनी सामे ज्ञाने जोयु नथी. पण सामे चीज छे तेना ज्ञेयाकारे ज्ञान थयु ते उदाहरण मात्र
छे. हा, सामे जेवुं ज्ञेय छे तेवु ज्ञानाकारमां