Atmadharma magazine - Ank 234
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : २३४
पणुं, अनित्यपणुं, शुद्धपणुं, अशुद्धपणुं होवामां विरोध नथी. अपूर्ण वीतरागता होय छे त्यां शुभराग
होय छे पण ते आत्महित माटे हितकर छे एम नथी.
मोक्षमार्ग छे ते वीतरागभाव स्वाश्रयपणे छे, रागपणे, पराश्रयपणे नथी. शुभरागना कारणे
वीतरागता टके छे–वधे छे एम नथी. असद्भूत व्यवहारनयनो विषय शुभराग व्यवहार रत्नत्रय ते
पराश्रयथी छे; तेना वडे स्वाश्रयीभाव (मोक्षमार्ग) छे एम नथी. साधक दशामां अंशे राग अंशे
वीतरागभाव होय छे; पण रागना कारणेत्र वीतरागता माने तेने आत्मज्ञान नथी. सम्यग्द्रष्टिनी
भूमिकानो शुभ राग खरेखर संवर निर्जरारूप शुद्धिनुं कार्य करे छे एम मानवुं मिथ्या मान्यता छे. श्री
अमृतचंद्राचार्यदेवे प्रवचनसारमां छठ्ठा गुणस्थानना शुभरागने (र८ मूळगुण वगेरे शुभभाव छे
तेने) प्रमादरूपी चोर=आत्म जागृतिने लूंटनारा कह्या छे; समयसारमां विषकुंभ कहेल छे तेने कोई
खरेखर आत्महितमां मदद करनार माने तो तेने आगमज्ञान नथी. आगम दरेक वस्तुने, नवे तत्त्वने,
स्वभाव विभावने जेम छे तेम अस्ति नास्तिथी सिद्ध बतावे छे. जेने एवुं विभाग ज्ञान नथी ते गमे
तेवो त्यागि मुनि हो तोपण ते कोईने संयम ज प्रथम तो सिद्ध थतो नथी. कारण के स्व–परना
विभागनो अभाव छे. हित अहित कई रीते छे तथा कारण कार्यनी स्वतंत्रता; जे अस्ति नास्तिना
ज्ञानथी सिद्ध छे तेनी तेने खबर नथी.
शरीरनी क्रिया तेनो पर्याय स्वभाव तेनाथी ज थाय छे, अन्य तो निमित्त मात्र छे एम न
मानता, माराथी ते छे अने मारा वडे जड शरीरादिना कार्य थाय छे एम माने छे ते, जीव अजीवने
एक माने छे, कोईने स्वतंत्र मानतो नथी. द्रव्य, गुण, पर्याय सहुना स्वथी सत् छे, परथी असत् छे–
एवुं पदार्थनुं स्वरूप त्रणे काळ छे; ते न माने ते जेम अन्यमति ईश्वर आदिने निमित्त कर्त्ता माने छे
तेम जैन साधु नाम धरावीने, शरीर आदिना काम मारा कारणे थाय छे, शरीरथी तप, त्याग संयम
रूपी आत्मानो धर्म थाय छे ने! शरीरथी दया पळाय छे ने! एम परमां अने परथी पोतानुं कार्य माने
छे तेथी तेने स्व–परनुं भेदज्ञान नथी. परमां अने पर साथे कर्त्तापणानो संबंध माननारने विवेकज्ञान
नथी तेथी परथी लाभ नुकशान माने ज छे.
शुभ राग ज्ञानीने पण होय छे, ते मंद कषाय छे. अज्ञानी तेमां प्रीतिवाळो होवाथी, शरीर
अने कषाय (रागादि) ने आत्माथी भिन्नपणे मानतो ज नथी, पण एक माने छे. ज्ञानी तो स्पष्टपणे
भिन्न ज माने छे.
मूख्य बे तत्त्वो छे; ज्ञायकभाव ते जीव अने जे किंचित् न जाणे ते अजीव; तेमां शरीर मूर्त्तिक
अजीव छे अने शुभाशुभराग जे जीवकृत अधराध छे, चेतननी जाग्रतिने रोकनार अजाग्रत अजीव
भाव मलिन भाव छे, आस्रव तत्त्व छे; तेथी प्रथमथी ज ज्ञानी तेने अहितकर अने हेय माने छे.
अज्ञानी तेने भला माने छे, करवा योग्य माने छे तेथी पोतानी साथे एक करे छे. शरीरनी क्रिया अने
रागनी क्रियाथी आत्माने लाभ माने छे, तेने हुं ग्रही शकुं छुं, छोडी शकुं छुं एम ते माने छे, तेथी तेणे
जीव अजीव बेउ तत्त्वो जुदा ज छे एम भावभासनपणे मान्युं नथी.
जीव शरीरथी जुदो पडे त्यारे जुदो मानुं. जो अत्यारे पण देहथी भिन्नपणे आत्मा होय तो मडदुं
केम चालतुं नथी? शरीरमां रोग आवतां आत्माने केम दुःख थाय छे? एम माननारा शरीर अने
आत्मा एक ज माने छे. जीवना आधारे शरीर नथी, शरीरना कारणे दुःख नथी, पण शरीर प्रत्ये ममता
छे ते ज दुःख छे अने जेटला प्रमाणमां ममता छे तेटला प्रमाणमां दुःख थाय छे, “शरीरे सुखी तो