चारित्र मोहरूपी मळमां जोडाण वडे लिप्त होवाने लीधे जरा चंचळतारूप, संज्वलन कषायमां
लिप्तपणाना कारणे शरीरादि प्रत्येनी मूर्छा द्वारा मलीनता रहेवाथी निर्मळ निर्विकारी शुद्ध उपयोगमां
परिणत करीने ७मा गुणस्थानने योग्य ज्ञानात्मक आत्माने अनुभवतो नथी तो ते पुरुष मात्र तेटला
(जराक) मोहमळ कलंकरूप जे खीली तेनी साथे बंधायेलां कर्मोथी नहि छूटतो थको सिद्ध (मुक्त) थतो
नथी. आथी ७मा गुणस्थानना निर्विकल्प शुद्धोपयोगी आत्मज्ञानथी शून्य आगमज्ञान–तत्त्वार्थ श्रद्धान
संयतत्त्वनुं युगपद्पणुं पण अकिंचित्कर ज छे. आमां निमित्त अने शुभराग कथंचित् मोक्षमार्ग क््यां
रह्यो?
श्रुतज्ञान समान छे, तेत्र वात गौणकारीने रागनो अंश सर्वथा बाधक ज छे ए बताववुं छे. वारंवार
छठ्ठा गुणस्थाने आवनार संयमी मुनि छे. स्वाश्रयना बळथी त्रण कषायनो अभाव कर्यो छे, ७मा
गुणस्थाने निर्वकल्प उपयोगरूप आत्माज्ञानमां वारंवार आवे छे पण छठ्ठा गुणस्थानना काळे तेने
कार्यक्षयनुं कारण एवो साक्षात् मोक्षनो उपाय नथी तेथी ते पुरुषने मंद प्रयत्नरूप निश्चय सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र त्रणे होवा छतां जरा मोहवश र८ मूळ गुण–व्यवहार रत्नत्रय अने शरीरादि प्रत्ये अल्प
रागरूप अस्थिरता रहे छे, रागमां एकता बुद्धि नथी, राग करवा जेवो मानता नथी तोपण छठ्ठा
गुणस्थानने योग्य राग–विकल्प होवाथी एटली मात्र मलीन दशामां रहेवाथी निरूपराग ज्ञानानंद
उपयोगमां पोताने परिणत करीने एकला अखंड ज्ञानात्मक आत्माने अनुभवतो नथी, अर्थात् ७मा
गुणस्थानने योग्य निर्विकल्प शुद्धताने ग्रहण करी अखंड आनंद धारामां निश्चल रहेतो नथी तो ते
पुरुष मात्र तेटला (जराक) मोहमळरूप जे खीली तेनी साथे बंधायेलां कर्मोथी नहि छूटतो थको, सिद्ध
परमात्मपद प्राप्त थतो नथी.
शुभराग पण मोक्षमार्ग अने अथंचित् वीतरागभाव मोक्षमार्ग एम संशयवाद, फुदडीवाद खीचडीवाद
वीतराग मार्गमां नथी– एम निर्धार कर्या पछी मोक्षमार्गमां पूर्ण वीतरागता न होय त्यां
भूमिकानुसार केवो राग निमित्तपणे होय ते बताववा अने तेनो आश्रय छोडाववा (निश्चय भूतार्थनो
आश्रय कराववा) शुभ व्यवहारने उपचारथी–असद्भूत व्यवहारनयथी मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे.
ज्ञानी तो भूतार्थना आश्रये सघळोय व्यवहार हेय जाणे छे. ‘हंत’ कही तेनो खेद बताव्यो छे, छतां ते
होय छे– एम जाणवुं ते व्यवहारज्ञाननुं प्रयोजन छे.