Atmadharma magazine - Ank 234
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : २३४
रहेवा मागे छे अने ते दशाने मोक्षमार्ग कहेवा मागे छे.
शास्त्रमां अनेक प्रकारे कथन आवे. ज्यां द्रव्यद्रष्टिनी मुख्यताथी कथन आवे त्यां
समयसारजीमां कह्युं छे के चोथा गुणस्थाने गृहस्थदशा हो केत्र चार गतिमां गमे ते गतिमां हो,
सम्यग्दर्शन थयुं के “स एव मुक्त” मुक्त थई गयो त्यां निश्चय श्रद्धा अपेक्षाए, स्वामीत्व अपेक्षाए
समजवुं. साथे अविनाभावि स्वरूपाचरण चारित्र पण होय ज छे. पण तेटलाथी मोक्षमार्ग थई जतो
नथी. अहीं सम्यक्त्व उपरान्त वीतराग चारित्रनी वात छे, तेथी कह्युं के छठ्ठा गुणस्थाननी शुद्धता अने
शुभ व्यवहार छे ते मोक्षनी रचना माटे अयोग्य छे, ते जीव तेटला अंशे शरीरादि प्रत्येनी मूर्छा वडे
मलिन होवाथी, निर्मळ निर्विकारी उपयोगमां पोताने परिणत करीने ज्ञानात्मक आत्माने सतत
अनुभवतो नथी तो ते पुरुष मात्र तेटला (जराक) मोहमळ कलंकरूप जे खीली तेनी साथे बंधायेलां
कर्मोथी नहीं छूटतो थको, सिद्ध थतो नथी. आथी नक्की थाय छे के निर्विकल्प आत्मज्ञान शून्य
आगमज्ञान–तत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वनुं एक साथे होवापणुं पण अकिंचित्कर ज छे. शुभराग कथंचित्
किंचित् मददगार छे एम नथी. जुओ, आ, स्पष्टपणे आचार्यदेवनी निःशंक जाहेरात छे.
हवे ए त्रणनी साथे निर्विकल्प आत्मज्ञाननुं होवापणुं कई रीतछे ते बतावे छे.
गाथा–२४०
पांच समित युक्त, पांच ईन्द्रियना संवरवाळो, त्रण गुप्ति सहित, जितकषाय अने दर्शन
ज्ञानथी परिपूर्ण–एवो जे श्रमण तेने संयत कह्यो छे.
टीका–जे पुरुष अनेकान्त चिह्नवाळा शास्त्रज्ञानना बळथी सकल पदार्थोना स्वरूपने जाणता,
विशद एक पूर्ण ज्ञानस्वरूप एवा पोताना आत्माने श्रद्धे छे, अनुभवे छे अने एवा आत्मामां ज
नित्य निश्चल रहेवा मागे छे.. अहीं अनेकान्तना घणा अर्थ अस्तिनास्तिथी प्रसिद्ध थाय छे. दरेक द्रव्य
पोताना द्रव्यपणे छे, अन्य द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावपणे नथी, अन्यना आधारे पण नथी. द्रव्य द्रव्यरूपे
छे, गुण पर्यायना भेदरूपे नथी. गुण–पर्याय ते पणे छे, बीजापणे नथी. पर्याय पर्यायथी छे, द्रव्य
गुणथी नथी. एक समयस्थित पर्याय सत् अनित्य नथी. एक समयस्थित पर्याय सत् अनित्य ज छे,
नित्य कोई काळे नथी; तेमां पण उत्पाद सत् उत्पादने आश्रये छे, व्यय ध्रुवने आश्रये छे, बीजाने
आश्रये नथी– एम प्रत्येक द्रव्यमां स्वतंत्र सत्पणाथी अस्ति नास्तिपणुं छे, ते पर सत्ताथी निरपेक्षता
अने स्वसत्ताथी सापेक्षता बतावे छे. एवा सर्वज्ञ कथित आगमज्ञानना बळथी सर्वज्ञ स्वभावी
आत्माने श्रद्धतो, अनुभवतो थको अने आत्मामां ज नित्य निश्चल वृत्तिने ईच्छतो, संयमना
साधनरूप बनावेला मुनित्व योग्य शरीरपात्रने पांच समितिथी अंकुशित प्रवृत्ति वडे प्रवर्तावतो,
(निमित्तना आरोपनी योग्यतारूप शरीर क््यारे कहेवायुं के पोते वीतराग चारित्ररूप थयो त्यारे)
आम क्रमश: पांच ईन्द्रियोना निश्चल निरोध द्वारा जेनेत्र काय–वचन–मननो व्यापार विराम पाम्यो
छे, (मन पामे विश्राम) एवो थईने चिद्वृत्तिने पर द्रव्यमां भमवुं अटकी जतां, कषाय साथे ज्ञानने
ज्ञेय ज्ञायकपणुं होवा छतां, रागादि पोतानी चारित्र पर्यायमां उपजे छे, जेवो राग होय तेम ज्ञेयपणे
जणावा छतां, लक्षणभेदे परस्पर भेद जाणतो होवाथी, उत्पन्न थवा पहेलां टाळी नाखे छे, स्वभावमां
सतत जाग्रत रहे छे.
अहीं साधकने चारित्र गुणनी एक पर्यायमां एक समय एक साथे चार बोल छे एम जाणे छे.
१. अंशे मलिनतामां भाव आस्रव अने भाव बंध.
र. अंशे निर्मळतामां भावसंवर–भावनिर्जरा.