: १८ : आत्मधर्म : र३४
मोक्षना मंडपमां सिद्धोने निमंत्रण
ता. र६–३–६३ ना रोज चोटीलाथी प्रस्थान करीने, वच्चे वांकानेर जिनमंदिरमां दर्शन
करीने पू. गुरुदेव मोरबी पधार्या... उत्साहभर्या स्वागत बाद पू. गुरुदेवे मंगलप्रवचन
संभळाव्युं. बपोरे पू. गुरुदेवे समयसार कर्ताकर्मअधिकार उपर प्रवचन कर्युं. तेनो
सार अहीं आपवामां आव्यो छे.
आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! तुं आत्मा छो... तारी जात सिद्धपरमात्मा जेवी छे. राग अनेत्र
विकार ते तारी खरी जात नथी. सर्वज्ञता ने पूर्ण आनंद तारा स्वभावमां भर्यो छे, तेमांथी सर्वज्ञता
ने पूर्ण आनंद प्रगटे छे.
समयसारनी पहेली गाथामां ‘वंदित्तु सव्वसिद्धे’ कहीने परमात्मानो विनय कर्यो छे. अहो!
जेमने पूर्ण ज्ञान–आनंद प्रगट्यो छे एवा अशरीरी चैतन्य परमात्मा–तेमने अमे अमारा ज्ञाननी
दशामां स्थापीने बहुमान करीए छीए, तेमनो सत्कार करीए छीए; एनाथी विरुद्ध एवा परभावोनो
आदर ज्ञानमांथी काढी नांखीए छीए. आवा सिद्धभगवंतो अत्यार सुधीमां अनंता थया. आत्मानी
सिद्धदशाने साधवा माटे साधकभावनो काळ असंख्य समयनो ज छे. एक चोवीसीना असंख्याता
समय, तेना पण असंख्यातमा भागना काळमां निर्विकल्प चैतन्यना वेदनथी आत्मानी परमात्मदशा
साधी शकाय छे. साधकभावनो काळ असंख्य समयनो ज होय,
अहो, पूर्ण परमानंददशा जेने प्रगटी तेनो जेना अंतरमां आदर छे एवो जीव आ
समयसारनो श्रोता छे. चैतन्यनीय पूर्णानंददशानी जेने जिज्ञासा होय ते ज आ समयसारनो श्रोता
छे. तेने आचार्यदेव आ चैतन्यनी अपूर्व वात समजावे छे. धर्मात्मा सिद्ध भगवानने ओळखीने
आत्मामां सिद्धपदनी स्थापना करे छे. क्रमेक्रमे स्वरूपनुं श्रवण अने घोलन करतां करतां तेनी
भावनावडे सिद्धपदनो काळ आवशे. – आवी सिद्धपदनी स्थापना ते अपूर्व मंगळ छे.
जेम सारा कार्यप्रसंगमां सगावहालाने मांडवे निमंत्रे छे, तेम साधकजीव मोक्षने साधवाना
आनंद प्रसंगे कहे छे के हे सिद्धो! हे परमेष्ठी भगवंतो! हुं मारा आत्मामां आपनो सत्कार करुं छुं;
मारी मोक्षदशाने साधता हुं आपने मारी साथे राखुं छुं. प्रभो! आप सिद्धपद पाम्या... ने मारे ते
सिद्धपद पामवानुं छे... प्रभो! आप तो उपरथी नीचे नहि आवो... पण हुं आपने मारा हृदयमां
स्थापीने सिद्धपदमां आवुं छुं.
जुओ, आ ज्ञानीनी दशा! अतीन्द्रिय आनंदनो