४र८९ : चैत्र : १९ :
वादी थईने जेओए विभावरूप कर्ताकर्मनो नाश कर्यो ने जेओ सिद्धपद पाम्या–एवा सिद्धभगवंतोने
नमस्कार करीने आचार्यदेवे आ कर्ताकर्म–अधिकार शरू कर्यो छे. आत्मा चैतन्यस्वरूप छे; चैतन्यस्वरूप
आत्माने अने क्रोधादिभावोने खरेखर एकता नथी. पण अज्ञानभावे एकता मानीने अज्ञानीजीव
क्रोधादिना कर्तापणे परिणमे छे, ते मिथ्यात्व अने संसार छे. अने भेदज्ञान वडे चैतन्यस्वरूप आत्माने
क्रोधादिथी जुदो जाणवो ते मोक्षनुं मूळ छे. – धर्म कोई एवी अपूर्व चीज छे के जेना क्षणमात्रना
सेवनथी भणकार आवी जाय के हवे अमारी मुक्तिना पाया पाका थई गया... अल्पकाळमां हवे अमे
संसारथी छूटीने सिद्धदशारूपे प्रणमी जशुं.
अहो, आ चैतन्यनुं लक्ष करीने तेना पक्षपूर्वक जेणे निरूपाधि स्वभावनो हकार कर्यो ते जरूर
मुक्ति पामशे. चैतन्यनो प्रेम जगाडीने तेनी वार्ता जे सांभळे ते जीव भविष्यमां राग अने चैतन्यनी
फाड करीने, मोक्षने साधशे. –ए वात पद्मनंदी मुनिए पद्मनंदी पच्चीसीमां करी छे, जेने
श्रीमद्राजचंद्रजीए ‘वनशास्त्र’ कह्युं छे. जुओ, आत्मामां आ वात समजवानी ताकात छे. जेने
जिज्ञासा जागे तेमां तेने बेहदता होय छे. चैतन्यनी खरी जिज्ञासावाळो जीव बेहद प्रयत्नथी चैतन्यनी
खरी जिज्ञासावाळो जीव बेहद प्रयत्नथी चैतन्यने जरूर समजे छे. आ वात समजाय तेवी छे ने आ
वात समज्ये ज कल्याण छे.
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क््य. अटक्य.? .
अज्ञानी जीव जगतथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वरूपने चूकीने देशनुं –
परनुं–घरनुं अने शरीर वगेरेनुं काम करवाना अभिमानमां अटके छे, बहु तो
धर्मना नामे आगळ चाले तो दया–व्रत वगेरेना शुभरागमां धर्म मानीने त्यां
अटकी जाय छे; पण शरीरादिनी क्रियाथी भिन्न ने शुभरागथी पण पार एवा
पोताना ज्ञानानंद स्वरूप आत्मानुं लक्ष करतो नथी, तेथी तेना जन्ममरणना
दुःखनो अंत आवतो नथी. अनादिकाळमां पुण्य कर्यां तोपण जीव संसारमां ज
रखड्यो छे, तो ते संसारनुं मूळ कारण शुं छे तेन जाणीने तेने टाळवानो उपाय
करवो जोईए.
मुक्तिना उपायनुं पहेलुं सोपान
अंतरना चिदानंद स्वभावने ओळखीने तेमां एकाग्रताथी राग टाळीने
जेमणे सर्वज्ञता प्रगट करी ते सर्वज्ञ परमात्माना दिव्यध्वनिमां एवो उपदेश
आव्यो के: अरे आत्मा! तें तारा असली स्वभाव तरफ कदी वलण कर्युं नथी;
तारो आत्मा एक समयमां परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदस्वभावथी भरेलो छे तेने
ओळखीने तेनी प्रीति कर. अंतर आत्मामां एकाग्र थतां राग टळी जाय छे ने
सर्वज्ञतां प्रगटी जाय छे, माटे राग ते तारुं खरुं स्वरूप नथी पण पूर्णज्ञान ते
तारुं स्वरूप छे. आ प्रमाणे रागथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मानो निर्णय करवो ते
मुक्तिना उपायनुं पहेलुं सोपान छे.
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