Atmadharma magazine - Ank 234
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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४र८९ : चैत्र : २१ :
(ए रीते सवारना मंगल प्रवचन बाद बपोरे हाईस्कूलना प्रवचन होलमां व्याख्यान करतां कह्युं के:)
आ सौराष्ट्रमां विहारनुं मंगलाचरण थाय छे. मांगलिकमां समयसारनो १३८ मो श्लोक वंचाय
छे. तेमां आत्माने जगाडतां आचार्यदेव कहे छे के अरे जीवो! अनादि संसारथी मांडीने अज्ञानने लीधे
रागमां ज निजपद मानीने तमे सूता छो... हवे जागो... अने समजो के आत्मा तो चैतन्यस्वरूप छे,
रागनी भिन्नता छे तेनुं भेदज्ञान करो तो अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनो प्रवाह वहे छे.
पोतानुं वास्तविक शुद्ध स्वरूप शुं छे तेना भान वगर अनंतकाळथी संसारमां रखडीने दुःख
भोगवी रह्यो छे, ते केम टळे तेनी आ वात छे–
अनंतकाळथी आथड्यो विना भाव भगवान,
सेव्या नहि गुरु संतने, मूक्युं नहि अभिमान.
ज्ञानी गुरु शुं कहे छे ने तेमणे कहेलुं आत्मतत्त्व शुं वस्तु छे तेने ओळख्या वगर जीव संसारमां
अनंतकाळथी आथड्यो छे. सत्समागमनुं पात्रतापूर्वक सेवन कर्या विना चैतन्यनो्र स्पर्श एटले के
अनुभव थाय नहि. अपूर्व सत्समागम वगर चैतन्यना पत्ता लागे तेवा नथी.
जीवने संसारमां कोईए रखडाव्यो नथी पण पोते पोतानी भूलथी ज रखड्यो छे. जीवे
अनंतकाळमां बीजुं बधुं कर्युं–व्रत, तप कर्या, पूजा भक्तिना शुभभाव कर्या पण पोतानुं स्वरूप देहथी
भिन्न ने रागथी पार शुं चीज छे तेनी सूझ तेने पडी नथी; तेथी ज ते दुःखी थयो छे. आत्मसिद्धिनी
पहेली ज गाथामां श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
जे स्वरूप समज्या विना... पाम्यो दुःख अनंत
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत... रे...
गुणवंता ज्ञानी... अमृत वरस्या छे पंचमकाळमां..
भगवान आत्मा देहथी लपेटायेलो पण देहथी भिन्न अरूपी चैतन्यमूर्ति तत्त्व छे; जेम जुदा जुदा
रंगना वस्त्रोथी लपेटायेली सोनानी लगडी, ते वस्त्रथी भिन्न ज छे, तेम चैतन्यमूर्ति आत्मा सोनानी
लगडी जेवो छे, ते आ स्त्री–पुरुषदिना देहरूपी वस्त्रथी लपेटायेलो छे, पण ते देहरूप थयो नथी. आवा
देह तो अनंतवार मळ्‌या ने टळ्‌या, पण आत्मा तो एनो ए ज छे.
आ संसारमां मनुष्य अवतार मळवो पण मोंघो छे, ने तेमां आत्मानुं भान करीने
जन्ममरणनो अंत आवे ते तो अपूर्व चीज छे. श्रीमद् राजचंद्र मात्र १६ वर्षनी वये कहे छे के–
बहु पुण्य केरा पूंजथी शुभ देह मानवनो मळ्‌यो.
तोये अरे भवचक्रनो आटो नहि एके टळ्‌यो.
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो;
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो!
अरे भाई, आवो अवतार मळ्‌यो तेमां तारा चैतन्यभावनी किंमत शुं छे– तेनो्र महिमा तो जाण!
जगतना पदार्थोनो महिमा करवामां तुं डूबी गयो, पण तारा चैतन्यपदार्थनो अचिंत्यमहिमा तें जाण्यो
नहि. तारामां भर्युं छे. सर्वज्ञतानी ताकात तारामां भरी छे; माटे आवी तारी प्रभुताने तुं जाण. पोतानी
प्रभुताने भूलीने अंधपणे अज्ञानमां ऊंघता जीवोने आचार्यदेव प्रेमथी जगाडे छे के अरे जीवो! तमे
जागो... ने अंतरमां तमारा शुद्धतत्त्वने देखो, अतीन्द्रिय आनंद ने सर्वज्ञता तमारामां भरी छे तेने देखो.
अत्यारे महाविदेह क्षेत्रमां सीमंधर परमात्मा सर्वज्ञपदे बिराजे छे, तेओ परमात्मा छे, वीतराग
विज्ञानना पूंज छे; तेमना शरीरेथी’ कारध्वनि छूटे छे; ते सांभळवा सिंह ने वाघ आवे छे. आठ आठ
वर्षना राजकुमारो ने कन्याओ पण चैतन्यनुं भान करे छे. चैतन्यमां अचिंत्य ताकात छे पण तेने पोतानो