वष २० : अक ६ ठ] तत्र : जगजीवन बवचद दश [चत्र : २४८९
भेदज्ञानीनी एकत्व भावना.
महा आपदाओथी भरेला, दुःखरूपी अग्निथी प्रज्वलित अने गहन एवा
संसाररूपी मरुस्थल (रण) मां आ जीव एकलो ज भ्रमण करे छे. कोईपण तेनो साथी
नथी. (१)
आ आत्मा एकलो ज शुभाशुभ कर्मफळने भोगवे छे, अने सर्वप्रंकारे पोते एकलो
ज, समस्त गतिओमां, एक शरीरथी बीजा शरीरने धारण करे छे. (र)
स्वर्गनी शोभाने मोहद्रष्टिथी देखीने रंजायमान थई स्वर्गना मानेला सुख पण
एकलो ज भोगवे छे, संयोग वियोगमां अथवा जन्म मरणमां तथा सुखदुःख भोगववामां
कोई पण मित्र साथी नथी.
आ जीव पुत्र, मित्र, स्त्री आदिने मोहनुं निमित्त बनावी. ते संबंधी पोतानो
संतोष माटे, जे कंई पुण्य पाप भलुं भूंडुं कार्य करे छे तेनुं फळ पण नरकादिक गतिओमा
स्वयं एकलो ज भोगवे छे, अन्य कोई भागीदार थतां नथी.
अनेक प्रकारना पाप द्वारा धनोपार्जन थाय छे. तेने भोगववामां तो पुत्र मित्रादि
अनेक साथे थई जाय छे, पण पोते बांधेला पापकर्मना संबंध वडे थतां घोर दुःखनो समूह
तेने सहन करवा कोई पण साथी थतो नथी. प्रत्यक्ष देखे छे के संसारी मोहवश प्राणी
एकलो ज जन्म मरण पामे छे, तेना कोई दुःखमां कोई साथी नथी, शरण नथी छतां
पोतानुं अनादि अनंत एकत्व निश्चय स्वरूप देखतो नथी ए मोटी भूल छे– तेनुं कारण
अज्ञान ज छे.
आ मूढ जीव जे समये मोहवश परने पोतानुं माने छे, मिथ्यात्व रागादिने कर्तव्य
माने छे ने ते रूपे परिणमे छे, त्यारे आ जीव पोते ज पोताने पोताना ज दोषथी बांधे छे.
ज्यारे भेदज्ञान द्वारा, असली एकत्वने अनुभवे छे त्यारे कर्मोनुं बंधन करतो
नथी पण निर्जरापूर्वक मोक्षगामी थाय छे.
जे समये आ जीव भेदविज्ञानद्वारा भ्रम रहित थईने एवुं चिंतवन करे के हुं
एकत्वने पाम्यो छुं. ते स्वानुभवना बळथी आ जीवने संसारनो संबंध स्वयं ज नष्ट थई
जाय छे; केमके संसारनो संबंध तो मोहथी छे. निर्मोही ज्ञानानंद निर्मळनी द्रष्टि–ज्ञान अने
अनुभव थतां, मोह उत्पन्न ज थतो नथी, केमके पोते एकलो छे तो मोक्षदशा केम न पामे?
(ज्ञानार्णव)