१. ज्ञानादि स्वभावक्रिया ते मोक्षनुं कारण छे.
२. क्रोधादि परभावक्रिया ते संसारनुं कारण छे.
३. जडनी क्रिया जीवथी जुदी छे, ते बंधनुं के मोक्षनुं कारण नथी. जीवने बंध–
ज्ञानक्रिया आत्माना स्वभावभूत छे, स्वभावना आश्रये तेनी उत्पत्ति छे, अने
नथी, तेनो निषेध थई शकतो नथी.
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विभावक्रिया परभावरूप छे, ते स्वभावना आश्रये उत्पन्न थती नथी पण
ते क्रिया निषेधवामां आवी छे, अर्थात् भेदज्ञान करीने स्वभावनो आश्रय करतां ते
विभावक्रिया छूटी जाय छे, एटले तेनो निषेध थई जाय छे.
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भेदज्ञानी तो, आत्मानो चैतन्यस्वभाव, अने रागादि परभाव ए बंनेने जुदां
रागादिभावोने पोताथी अत्यंत जुदा जाणतो थको तेमां पोतापणे–एकतापणे जरापण
वर्ततो नथी. अने अज्ञानी जीव चैतन्यभाव अने रागादिना भिन्न लक्षणने नहि
जाणतो थको, बंनेने एकमेक मानतो थको, ज्ञाननी जेम रागादिमां ज पोतापणे निःशंक
प्रवर्ते छे, पण रागथी ज्ञानने जुदुं करीने चैतन्यस्वभावमां एकता करतो नथी. आ
रीते ज्ञानी ज्ञानस्वभावमां ज एकता करीने ज्ञानक्रियारूप प्रवर्ते छे, अने अज्ञानी
क्रोधादिमां ज एकतापणे वर्ततो थको अज्ञानमय एवी क्रोधादिक्रियाने करे छे.
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ज्ञानीने स्वभावना आश्रये थती जे शुद्धज्ञानक्रिया छे ने ते निश्चय छे, ते
अशुद्धउपादान छे ने ते अशुद्धनिश्चय छे; शुद्धनिश्चयनी द्रष्टिमां तो अशुद्धनिश्चय ते पण
व्यवहारमां ज जाय