Atmadharma magazine - Ank 235
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म : १७ :
मंगल जन्मोत्सव अंक
प्रभो, अज्ञानप्रवृत्ति क््यारे छूटे?
हवे जेने बंधनथी छूटवानी भावना छे, एवो शिष्य जिज्ञासु थईने पूछे छे
के प्रभो! अनादिना अज्ञानथी जे आ कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे तेनो अभाव क््यारे
थाय? अरे, चैतन्यने दुःख देनारी आ अज्ञानप्रवृत्ति क््यारे छूटे? प्रभो! अज्ञान
ज आ संसारनुं मूळ छे–एम आप कह्युं, तो हवे ते अज्ञाननो अभाव केम थाय?
शिष्यने अज्ञानथी शीघ्र छूटवानी झंखना जागी छे तेथी धगशपूर्वक श्रीगुरुने
आवो प्रश्न पूछे छे. अनादिकाळ तो आवा अज्ञानमां वीत्यो पण हवे जे शिष्य
जाग्यो छे ते लांबो काळ अवा अज्ञानमां रहेवानो नथी, तेने धर्मलब्धिनो काळ
नजीक आव्यो छे; ते शिष्य पूछे छे के प्रभो! आत्माने बंधननुं कारण एवुं आ
अज्ञान क््यारे ढळे? शीघ्र अज्ञान टळे एवो उपाय जाणीने शिष्य अज्ञानने
टाळवा तत्पर थयो छे.
आवा शिष्यने आचार्यदेव उत्तर आपे छे के सांभळ! –
आ जीव ज्यारे आस्रवोनुं तेम निज आत्मातणुं
जाणे विशेषांतर, तदा बंधन नहि तेने थतुं. ७१.
आत्मा चैतन्यस्वभावमय छे, ते क्रोधादिमय नथी, अने क्रोधादि ते
आस्रवमय छे ते चैतन्यमय नथी–आ प्रमाणे बंनेनी भिन्नता जाणीने जीव ज्यारे
भेदज्ञान करे छे त्यारे तेने अज्ञाननो नाश थाय छे; अने अज्ञानथी उत्पन्न
थयेली एवी विकार साथेनी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति पण छूटी जाय छे, ते छूटी जतां
तेने बंधन पण अटकी जाय छे.