ज्ञानना परिणमनमां श्रद्धा–ज्ञान–आनंद वगेरे बधा भावो समाय छे, पण तेमां
क्रोधादि समाता नथी. अथवा, निश्चयरत्नत्रयरूप जे भाव ते ज्ञाननुं परिणमन छे, ते
आत्मानो स्वभाव छे, अने व्यवहाररत्नत्रयरूप शुभभाव ते खरेखर ज्ञाननुं
परिणमन नथी, ते आत्मानो स्वभाव नथी. जुओ, आ भेदज्ञान!! आवुं भेदज्ञान ते
ज अज्ञानना नाशनो उपाय छे. ज्यारे आवुं भेदज्ञान करे त्यारे ज अज्ञाननो नाश
थाय छे. आवा भेदज्ञान वगर क््यारेय अज्ञान छूटे नहि.
ज्ञानपरिणमनमां क्रोधादि थता मालुम पडता नथी; आ रीते ज्ञानमां क्रोध नथी. अने
ज्यारे क्रोधादिमां एकपणे परिणमे छे त्यारे ते जीवने ते क्रोधादिना परिणमनमां क्रोधादि
परभावो ज भासे छे, पण ते क्रोधादिमां ज्ञान भासतुं नथी, केमके क्रोधादिमां ज्ञान
नथी. आ रीते ज्ञान अने क्रोधादिने अत्यंत भिन्नता छे; एटले ज्ञानस्वभावी आत्माने
क्रोधादि साथे एकता नथी पण भिन्नता छे.
ते वेदनमां क्रोधादिनी उत्पत्ति थती नथी. ज्ञाननी अने क्रोधनी भिन्नता ज्ञानीने वेदनमां
स्पष्ट भासे छे. ज्यां परिणति स्वभाव तरफ झूकी त्यां क्रोधथी छूटी. परिणति
ज्ञानस्वभाव तरफ झूके अने तेमां रागनी रुचि पण रहे एम कदी बनतुं नथी. ज्यां
ज्ञाननी रुचि छे त्यां रागनी रुचि नथी; अने ज्यां समजावीने आचार्यदेव केवुं स्पष्ट
भेदज्ञान कराव्युं छे? आवुं भेदज्ञान करतांवेंत ज अज्ञान नाश पामे छे. –आ अपूर्व
धर्म छे.