शुभोपयोग पोते कांई धर्मपरिणति नथी. –आम समजावीने
पछी आचार्यदेव शुद्धोपयोगनुं फळ वर्णवीने तेमां आत्माने
धर्मपरिणति अने शुद्धोपयोगपरिणति तेमां शुं फेर? धर्मपरिणति तो
तो क््यारेक क््यारेक थाय छे, सातमा गुणस्थानथी मांडीने उपरना गुणस्थानोमां
शुद्धोपयोगपरिणति सदाय होय छे. धर्मीने शुभोपयोग परिणति होय त्यारे पण
धर्मपरिणति तो साथे वर्ते ज छे, पंरतु शुभोपयोग वखते शुद्धोपयोगपरिणति
होती नथी.
थई तेटलो ज छे; जे शुभराग रह्यो ते तो विरुद्ध परिणित छे, ते कांई धर्म नथी.
ते शुभरागमां कांई एवी ताकात नथी के मोक्षरूप कार्य करी शके. ते तो बंधननुं
ज कारण छे. मोक्षनुं कारण तो शुद्धपरिणति ज छे.
तो विरोधीकार्य करनार कह्यो छे. अविरुद्धकार्य एवो जे मोक्ष, तेनाथी विरुद्धकार्य
एटले बंधन, –शुभराग ते बंधननो कर्ता छे. शुद्धोपयोगरूप चारित्र तो मोक्षरूप
स्वकार्यने करवामां समर्थ छे; पण ते चारित्र ज्यारे शुभराग सहित होय त्यारे ते
रागना सद्भावने लीधे पोताना अविरुद्धकार्यने साधी शकतुं नथी; शुभराग
मोक्षथी विरुद्धकार्य करनारुं छे.
मोक्ष, ने शुभपरिणतिनुं कार्य बंध, –आम बंनेना मार्ग जुदा छे. भले एक
जीवने बंने भावो साथे होय, पण बंनेनुं कार्य