Atmadharma magazine - Ank 235
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्मः३३:
मंगल जन्मोत्सव अंक
सिंह सम्यग्दर्शन पामे छे
बाळको, जेम मनुष्यना जीवो आत्मानुं ज्ञान करीने धर्मनी आराधना करी शके छे तेम सिंह
वगेरे पशुना जीवो पण आत्मानुं ज्ञान करीने धर्मनी आराधना करी शके छे. अहीं तमने एवा एक
सिंहनी नानी वार्ता कहुं:
एक हतो सिंह... भारे मोटो ने बहु विकराळ! एना पंजामांथी कोई शिकार छटकी शके नहि.
एकवार ते हरणनो शिकार करतो हतो. एवामां आकाशमार्गे बे मुनिओ त्यांथी नीकळ्‌या. तेमणे ते
सिंहने जोयो, अने जाण्युं के आ सिंहनो जीव दशमा भवे तीर्थंकर थवानो छे. एथी मुनिओ ते सिंहने
प्रतिबोधवा माटे नीचे ऊतर्या अने सिंह सामे एक शिला उपर ऊभा.
आकाशमांथी ऊतरेला मुनिओने जोईने सिंहने नवाई लागी... ने आश्चर्यथी मुनि सामे
टगर–टगर जोई रह्यो. तेनो क्रोध टळी गयो ने शांतभाव प्रगट थया. मुनिराजे तेने संबोधीने
कह्युं; अरे जीव! आ शुं? दशमा भवे तो तुं भरतक्षेत्रनो चोवीसमो तीर्थंकर थवानो छे–एम
अमे भगवान पासेथी सांभळ्‌युं छे. –अने तारामां आ क्रूरता!! आ तने न शोभे. आ घोर
पापने हवे तुं छोड, छोड! ने आत्मानी सामुं जो! ज्ञानमूर्ति आत्माने आवा हिंसकभावथी
शांति न होय. तुं तारा ज्ञानभावने समज रे समज! ए प्रमाणे मुनिओए धोधमार उपदेशनी
अमृतधारा वरसावी.
मुनिओनो उपदेश सांभळतां ज ते सिंहने पोताना पूर्वभवनुं ज्ञान थयुं... वैराग्य थयो...
पश्चात्तापने लीधे तेनी आंखमांथी आंसुनी धार वहेवा लागी... ने चैतन्यनी शांतिमां ऊंडे ऊतरतां
त्यां ने त्यां ते सिंहनो जीव सम्यग्दर्शन पाम्यो. वाह... धन्य एना पुरुषार्थने! पछी तो ते सिंहे घणा
घणा उपकार भावथी मुनिओने वंदन कर्युं... ने खोराकनो त्याग करीने समाधि करी. त्यांथी अनुक्रमे
ऊंचा ऊंचा भवो धारण करीने दसमा भवे ते जीव सम्यक्रत्वना प्रभावथी तीर्थंकर महावीर थया.
अनेक जीवोनी हिंसा करनारो सिंह, आत्मज्ञानना प्रतापे अनेक जीवोनो तारणहार तीर्थंकर थयो.
अचिंत्य शक्तिवाळो आत्मा जागे तो शुं न करी शके?