सिंहनी नानी वार्ता कहुं:
सिंहने जोयो, अने जाण्युं के आ सिंहनो जीव दशमा भवे तीर्थंकर थवानो छे. एथी मुनिओ ते सिंहने
प्रतिबोधवा माटे नीचे ऊतर्या अने सिंह सामे एक शिला उपर ऊभा.
कह्युं; अरे जीव! आ शुं? दशमा भवे तो तुं भरतक्षेत्रनो चोवीसमो तीर्थंकर थवानो छे–एम
अमे भगवान पासेथी सांभळ्युं छे. –अने तारामां आ क्रूरता!! आ तने न शोभे. आ घोर
पापने हवे तुं छोड, छोड! ने आत्मानी सामुं जो! ज्ञानमूर्ति आत्माने आवा हिंसकभावथी
शांति न होय. तुं तारा ज्ञानभावने समज रे समज! ए प्रमाणे मुनिओए धोधमार उपदेशनी
अमृतधारा वरसावी.
त्यां ने त्यां ते सिंहनो जीव सम्यग्दर्शन पाम्यो. वाह... धन्य एना पुरुषार्थने! पछी तो ते सिंहे घणा
घणा उपकार भावथी मुनिओने वंदन कर्युं... ने खोराकनो त्याग करीने समाधि करी. त्यांथी अनुक्रमे
ऊंचा ऊंचा भवो धारण करीने दसमा भवे ते जीव सम्यक्रत्वना प्रभावथी तीर्थंकर महावीर थया.
अनेक जीवोनी हिंसा करनारो सिंह, आत्मज्ञानना प्रतापे अनेक जीवोनो तारणहार तीर्थंकर थयो.
अचिंत्य शक्तिवाळो आत्मा जागे तो शुं न करी शके?