Atmadharma magazine - Ank 235
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 8 of 53

background image
आत्मधर्म : प :
मंगल जन्मोत्सव अंक
अहो, ज्ञाननी महत्ता तो जुओ! जेने चैतन्यनो महिमा अंतरमां घूंटाय
छे ते क्षणे क्षणे कर्मोथी छूटतो ज जाय छे; अने जेना अंतरमां रागनो महिमा
घूंटाय छे ते भले मोटो त्यागी थईने फरतो होय तो पण क्षणेक्षणे तेने कर्मोनुं
बंधन थया ज करे छे. अरे जीव! आवी ज्ञाननी महत्ता सांभळीने एकवातुं
प्रमोद तो कर! तारा चैतन्यना आनंदनी वात सांभळीने उत्साह तो कर. रागनो
उत्साह करी करीने तो अनंतकाळ रखडयो, ते रागनो उत्साह छोडीने हवे
चैतन्यना आनंदनो उत्साह कर; एकवार अंतरथी चैतन्यनो उत्साह कर्यो के
भवथी बेठो पार! श्री पद्मनंदीस्वामी पण कहे छे के:
तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता ।
निश्चितं स भवेदूभव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।।
अहो, आ आत्मा चिदानंदस्वरूप छे, तेना प्रत्ये प्रीतिपूर्वक–प्रसन्न चित्तथी
स्वानुभवी पुरुषना मुखे तेनी वार्ता पण जे जीवे सांभळी छे ते भव्य जीव
भविष्यमां चोक्कस मुक्तिनुं भोजन थाय छे.
प्रवचनसारमां पण आचार्यदेव कहे छे के, केवळीभगवंतोने घातीकर्मोना
क्षयथी आहारादि वगर ज उत्कृष्ट–अतीन्द्रिय–आत्मसुख प्रगट्युं छे, तेथी नक्की
थाय छे के आत्मा पोते ज सुखस्वभावी छे, तेने सुख माटे बाह्यविषयोनी
अपेक्षा नथी; आत्माना सुखस्वभावनी आवी वात काने पडतां ज जे जीव
प्रमोदथी हा पाडीने श्रद्धा करे छे ते जीव आसन्नभव्य छे, एटले के अल्पकाळमां
ते मुक्ति पामशे.
आ देह देवळमां जुदो रहेलो चैतन्यमूर्ति आत्मा पोते ज पोतानी
परमानददशानुं साधन छे ने पोते ज साध्य छे, साधक पण पोते ज छे. पोते
पोतामां एकाग्र थईने पोताना परमानंदने साधे छे, तेमां वच्चे क््यांय विकार
नथी; साध्यमां के साधनमां क््यांय आस्रव नथी, माटे जे जीव साधक थयो छे ते
खरेखर आस्रवथी रहित छे. पोते अंतर्मुख थईने ध्यातापणे पोताने ज
शुद्धध्येयरूपे ध्यावे छे, एवा ध्यानमां आस्रव नथी. राग ते साधन नथी;
स्वभावनुं जे साधन प्रगट्युं तेमां राग नथी. ज्ञानीए अंतरमां भेदज्ञाननी
छीणी वडे ज्यां ज्ञान अने रागनी संधि वच्चे धा कर्यो, ते धा हवे कदी रूझाय
नहि, ज्ञानपरिणति रागथी जुदी पडी ते पडी, हवे फरीने कदी राग साथे एकमेक
थवानी नथी. रागनो प्रेम तोडीने तेणे परमात्माना घरमां प्रवेश कर्यो,
परमात्मपद तरफ उत्कृष्ट प्रेमनो प्रवाह वह्यो (‘पर प्रेम प्रवाह बढे प्रभुसे’)
अविहडप्रेमनी धारा निजस्वभाव तरफ वळी एवा धर्मात्माने हवे कर्मनो आस्रव
केम थाय? – ते कर्मनो कर्ता केम थाय? –जुओ, आ मोक्षनो राह! अहो,
एकवार राग अने ज्ञान वच्चेनो भेद पाडीने ज्ञानस्वभाव तरफ जोर तो करो!
ज्ञानस्वभाव पोते अबंध छे, तेना तरफना वलणथी ज अबंधपणुं प्रगटे छे. पूर्वे
बंधायेलां कर्मो सत्तामां पड्या होवा छतां ज्ञानी तो