Atmadharma magazine - Ank 235
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म : ६ :
मंगल जन्मोत्सव अंक
अबंध ज छे केमके ज्ञानीनी परिणति तो स्वसमयने अनुसरे छे. ज्ञानीनी परिणीत
कर्मनी सत्ताने नथी अनुसरती, परंतु चैतन्यसत्ताने ज अनुसरे छे. चैतन्यनुं अवलंबन
छोडीने जे कर्मन अनुसरे छे तेने ज बंधन थाय छे. चैतन्यने अनुसरनारो भाव तो
सर्व रागद्वेषमोहथी रहित छे, तेथी ते बंधनुं कारण थतो नथी. शुद्धचैतन्यसत्ता तरफ
झुकेलो भाव नवा कर्मबंधनुं कारण जरापण थतो ज नथी.
जगतमां अनादिअनंत छे; जिनपद प्रगट करेला परमात्मा पण जगतमां
अनादिना छे, ने शक्तिपणे दरेक आत्मामां जिनपद ‘प्रगटवानी ताकात छे. आवा
अचिंत्यसामर्थ्यवाळुं निजपद छे तेनुं अवलोकन जीवे एकक्षण पण पूर्वे कर्युं नथी. अहो,
आ चैतन्यमय जिनपद छे, तेमां कर्मनो प्रवेश ज क््यां छे? आचार्य भगवाने वनमां
बेठाबेठा निर्विकल्प अनुभवनी गूफामांथी बहार आवीने सिंहनाद कर्यो छे के अरे
जीवो! ज्ञानस्वभाव तरफ झुकेली परिणतिमां आठेय कर्मोनो अभाव छे... ते
स्वभावसन्मुख थाओ. जेम सिंह पासे हरणीयां ऊभा न रहे तेम अंतर्मुखपरिणतिथी
ज्यां चैतन्यसिंह जाग्यो त्यां आठेकर्मो दूर भाग्या.
जेने अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूपना रसनी मीठास लागी तेने कर्मनी आकुळताना
रसनी मीठास केम रहे? सम्यग्द्रष्टिधर्मात्माने रागनी रुचिनो असंभव छे, तेने राग
वगरनुं चैतन्यवेदन थयुं छे. ज्यां चैतन्यशांतिना फूवारा छूटया त्यां रागद्वेषमोह केवा?
जराक अंशमात्र पण रागनी रुचि रहे अने सम्यग्दर्शन थाय–एम बने नहि.
सम्यग्दर्शनने अने रागद्वेषमोहने भिन्नपणुं छे. सम्यक्त्वनो भाव छे ते अबंधक छे, ने
तेमां रागादिनो अभाव छे. बंधनना कारणो तो रागादि ज छे, ते रागादिना अभावमां
धर्मात्माने जुनुं कर्म नवा कर्मना बंधननुं कारण थतुं नथी; माटे धर्मी जीव अबंध ज
छे–एम जाणवुं.
सिंह जागे ने हरण भागे आत्मा जागे ने करम भागे
जेम सिंह जागे ने हरणीया भागे... तेम निर्विकल्प अनुभूति करतो चैतन्यसिंह
ज्यां जाग्यो त्यां आठे कर्मो भाग्या.