कर्मनी सत्ताने नथी अनुसरती, परंतु चैतन्यसत्ताने ज अनुसरे छे. चैतन्यनुं अवलंबन
छोडीने जे कर्मन अनुसरे छे तेने ज बंधन थाय छे. चैतन्यने अनुसरनारो भाव तो
सर्व रागद्वेषमोहथी रहित छे, तेथी ते बंधनुं कारण थतो नथी. शुद्धचैतन्यसत्ता तरफ
झुकेलो भाव नवा कर्मबंधनुं कारण जरापण थतो ज नथी.
अचिंत्यसामर्थ्यवाळुं निजपद छे तेनुं अवलोकन जीवे एकक्षण पण पूर्वे कर्युं नथी. अहो,
आ चैतन्यमय जिनपद छे, तेमां कर्मनो प्रवेश ज क््यां छे? आचार्य भगवाने वनमां
बेठाबेठा निर्विकल्प अनुभवनी गूफामांथी बहार आवीने सिंहनाद कर्यो छे के अरे
जीवो! ज्ञानस्वभाव तरफ झुकेली परिणतिमां आठेय कर्मोनो अभाव छे... ते
स्वभावसन्मुख थाओ. जेम सिंह पासे हरणीयां ऊभा न रहे तेम अंतर्मुखपरिणतिथी
ज्यां चैतन्यसिंह जाग्यो त्यां आठेकर्मो दूर भाग्या.
वगरनुं चैतन्यवेदन थयुं छे. ज्यां चैतन्यशांतिना फूवारा छूटया त्यां रागद्वेषमोह केवा?
जराक अंशमात्र पण रागनी रुचि रहे अने सम्यग्दर्शन थाय–एम बने नहि.
सम्यग्दर्शनने अने रागद्वेषमोहने भिन्नपणुं छे. सम्यक्त्वनो भाव छे ते अबंधक छे, ने
तेमां रागादिनो अभाव छे. बंधनना कारणो तो रागादि ज छे, ते रागादिना अभावमां
धर्मात्माने जुनुं कर्म नवा कर्मना बंधननुं कारण थतुं नथी; माटे धर्मी जीव अबंध ज
छे–एम जाणवुं.