Atmadharma magazine - Ank 236
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४८९ : १३ :
३३. भगवान तीर्थंकरपरमात्मा महाविदेहमां अत्यारे साक्षात् बिराजे छे, तेमनी सभामां
गणधरो बेसे छे, त्यां संतोनां ने मुनिओनां टोळां छे ने भगवाननी वाणीमां धर्मना धोध छूटे छे.
३४. भगवाने शुं कह्युं? ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा तरफ झूकवानुं भगवाने कह्युं छे. एना सिवाय
बीजुं बधुं जीव अनंतवार करी चूक््यो, पण ए रागनी क्रियाओथी किंचित् कल्याण न थशुं.
३प. जेने भवनो भय लाग्यो छे एवो जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के प्रभो! भवभ्रमणना कारणरूप
आ अज्ञान केम टाळे? एवा शिष्यने आचार्यदेवे भेदज्ञाननी अपूर्व वात समजावी छे.
३६. जुओ भाई, रागनी वात तो जगतमां बधेय चाले छे, पण अहीं भगवाननी दुकाने तो
आत्मानो मोक्ष केम थाय तेनी वात छे.
३७. चैतन्य शुं ने राग शुं एनी भिन्नताना भानवडे जे सम्यक्त्वना अंकुश ऊग्या ते वधीने
पूर्णानंदमय परमात्मदशा प्रगटी जशे.
३८. रागमां जागृतिभाव नथी, तेनामां चैतन्यना स्वसंवेदननी ताकात नथी, ते रागने राग
तरीके पण ज्ञान ज जाणे छे. ज्ञान जागृत छे, ज्ञानमां ज स्वसंवेदननी ने स्व–परने जाणवानी ताकात
छे. एम ओळखीने ज्ञान ज्ञानपणे परिणम्युं त्यां अज्ञाननो नाश थई गयो छे.
३९. रागने रागनीये खबर नथी ने ज्ञाननीये खबर नथी. ज्ञानने ज्ञाननीये खबर छे ने
रागने य ते जाणे छे; माटे ज्ञान जागृत स्वरूप छे, ने राग अजागृत–अचेतन छे. ते रागने
चैतन्यभावथी भिन्नता छे. आवी ओळखाण वडे रागथी जुदो पडीने ज्ञाननो अनुभव लीधो त्यां
रागातीत अतीन्द्रिये चैतन्य स्वाद आव्यो, एटले भेदज्ञान थयुं, ने अज्ञान टळ्‌युं.
४०. भाई, दिवस थोडो, –जीवनना घणा वर्षोतो वीती गया ने थोडा रह्या, तेमां आ वात
समजीने आत्मानुं कल्याण करवा जेवुं छे. अरे, नानी उंमरमां पण बधाये पहेलेथी आ करवा जेवुं छे.
४१. संतो करुणाबुद्धिथी जगतने समजावी रह्या छे के अरे आत्मा! परमां कर्तृत्वनी तारी बुद्धि
ते दुःखनी खाण छे, ते पापनी खाण छे; अरे, रागनी वृत्ति पण दुःखरूप छे, तेनी कर्तृत्वबुद्धि पण
दुःखनुं मूळ छे. तारे शांति ने सम्यग्दर्शन जोईतुं होय तो परथी भिन्न ने रागथी पार ज्ञानतत्त्व
अंतरमां शुं छे तेने लक्षमां ले तो तारा दुःख टळे ने भवना अंत आवे.
४२. संसारभ्रमणथी थाकीने जे शिष्यनो पोकार संत पासे थयो, ते शिष्यने संत भवना अंतनी
वात समजावे छे.
४३. भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदरसनो कंद छे, ते कोई रागनुं कारण नथी, तेमज
रागनुं ते कार्य पण नथी, एटले राग वडे चैतन्यनो अनुभव थाय नहि; तेमज चैतन्यतत्त्व सुखनुं
सागर छे ते दुःखनुं अकारण छे.
४४. संतोना हृदयनी वात शुं छे–तेनो परिचय जीवे कदी कर्यो नथी. अरे, यथार्थबुद्धिथी तेनुं
श्रवण पण कर्युं नथी ने एकक्षण पण कदी तेनो अनुभव कर्यो नथी. आ वात प्रथम निर्धारमां लाववी
तेमां पण कोई अपूर्व पुरुषार्थ छे. सम्यक् निर्धार ते निर्वाणनो मार्ग छे.
४प. पछी अनुभवदशामां तो वीतरागी शमरसना झरणां झरे छे, निर्विकल्प सुधारसने आत्मा
चूसे छे. मुनिदशामां एवा आनंदरसनो अनुभव घणो वधी गयो छे, ए तो मोक्षनी उग्र साधकदशा छे.
४६. शुद्धतानो पिंड आत्मा, ने अशुद्ध एवा रागादिभावो, सुखनो पिंड आत्मा, ने दुःखनुं
कारण एवा रागादिभावो, चैतन्य साथे एकमेक एवो आत्मा, ने चैतन्यथी विपरीत एवा रागादि
भावो–ए बंनेने अत्यंत भिन्नता छे.
४७. आत्मानो अने विकारनो लक्षणभेद जाणीीने तेमने जुदा जाणवा, –कई रीते? –के
आत्माना स्वभाव तरफ झूकवुं ने विकारभावोमां एकताबुद्धि छोडवी.