Atmadharma magazine - Ank 236
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४८९ : १९:
अनुभव शरीरना ज अंगरूप एवा आंगळावडे थाय छे, पण लाकडावडे के नखवडे ते जणातो नथी.
तेम ज्ञानशरीरी भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव ईन्द्रियोवडे के रागवडे थतो नथी,
पण ज्ञानना ज अंशरूप एवा सम्यक् मति–श्रुतज्ञानवडे ज ते अनुभव थाय छे. जड ईन्द्रियो तो
लाकडा जेवी छे, तेना वडे चैतन्यनो स्पर्श थतो नथी. राग ते पण चैतन्यनुं खरुं अंग नथी, ते तो
वधेला नख जेवो विकार छे. पण ईन्द्रियोथी पार ने रागथी जुदुं एवुं जे एकलुं ज्ञानतेना वडे ज्ञाननो
अतीन्द्रियस्वाद वेदनमां आवे छे. जडनी क्रिया तो चैतन्यस्वभावथी अत्यंत दूर छे, ने शुभ विकल्प
पण चैतन्यस्वभावथी दूर छे, तेमना वडे स्वभावनी समीप जवातुं नथी, स्वभावनी समीप तो
शुद्धनयरूपी ज्ञानवडे ज जवाय छे. आवो अनुभव करवा माटे अंदर पहेलां जिज्ञासा जागवी जोईए;
आवा अनुभवनो मार्ग देखाडनारा देव केवा होय, तेवो अनुभव करनारा साधक संतो केवा होय, ने
रागादि रहित वीतरागभावरूप धर्म केवो होय? तेनी पोताने ओळखाण होवी जोईए. अहा, जेम
निर्मळ स्फटिकनी मूर्ति होय तेमां डाघ न होय, तेम भगवान आत्मा निर्मळ चैतन्यबिंब छे, तेमां
कषायनो अभाव छे –आवा स्वभावना अनुभवथी जे अकषायी शांतदशा खीले तेनुं नाम धर्म छे.
तेमां पुण्य–पापना कषायभावोनी उपाधि नथी. चोथा गुणस्थानेथी ज समकिती जीव आवी दशा पामे
छे.
अरे, अत्यारे तो आ भरतक्षेत्रमां साक्षात् सर्वज्ञ परमात्माना विरह पड्या! बे हजार वर्ष
पहेलां आचार्य कुंदकुंददेव महान दिगंबर संत हता, तेओ मद्रास पासे पोन्नूरह८टील उपर रहेता
ने त्यां ज्ञानध्यान करता; त्यांथी तेओ विदेहक्षेत्रमां सीमंधर परमात्मा साक्षात् तीर्थंकर बिराजे
छे– तेमनी पासे गया हता. आठ दिवस रह्या हता ने भगवाननी’ कारवाणी सांभळीने पछी आ
समयसार वगेरे महानशास्त्रो रच्या छे. देहथी भिन्न चैतन्यगोळाना आनंदमां झुलताझुलता
तेमणे आ शास्त्रो रच्या छे. आ बधी वात साक्षात् पूरावा सहित प्रमाण थयेली छे, पण अत्यारे
सिद्ध करवा न बेसाय. अहीं तो आत्मानो अनुभव केम थाय ते वात बतावे छे. अरे, आ
भरतक्षेत्रमां अत्यारे भगवंतोनो विरह... तत्त्वरसिक जीवो पण थोडा–गण्या गांठया... चैतन्यने
केम ओळखवुं ने केम अनुभववुं तेनी रसिकतावाळा जीवो बहु थोडा छे... ने तत्त्वमां विघ्न
नांखनारा जीवो घणा... हे जिनदेव! हे विदेहीनाथ! आवो विखवाद भरतक्षेत्रमां वर्ती रह्यो छे,
आप तो ते बधुं जाणो छो... तेमांथी मार्ग काढीने प्रभु! तारा पंथे आवुं छुं... चैतन्यस्वभावनी
समीपता करीने तारा मार्गने साधुं छुं.
अहा, परम चैतन्यनिधान अंतरमां साक्षात् मोजुद पड्युं छे, पण विकारनी रुचिमां
अटकेला जीवो ते निधानने उल्लंधी जाय छे... जगतना नाथ चैतन्य भगवान विकारनी रुचिमां
आंधळो थईने जगतमां भटकी रह्यो छे... ज्ञानी गुरु संत शुद्धनयवडे तेनी आंख खोले छे के देख
रे देख! आ तारा चैतन्यनिधानने तारामां देख. अहा, आ वीतरागनी वाणी चैतन्यना निधान
देखाडे छे–
वचनामृत वीतरागनां... परम शांत रसमूळ,
औषध जे भवरोगनां... कायरने प्रतिकूळ.
वीतरागनी वाणी झीलीने जे अंतर्मुख थाय तेने सम्यग्दर्शन थाय ने अपूर्व आनंदनो अनुभव
थाय... एनां अनादिना झेर ऊतरी जाय. सम्यग्दर्शन पूर्णानंदस्वरूप आखा आत्माने प्रतीतमां लई
ल्ये छे. आवा स्वभावना अनुभवनो अंतरमां अभ्यास करवो ते प्रभुताना पंथ छे. एवा
अंर्तअनुभव वडे ज सर्वज्ञ प्रभुना पंथे जवाय छे.