: ६: आत्मधर्म: २३६
(९) चैंतन्यनो अनुभव थतां अतीन्द्रिय आनंदथी भरेलुं मंगल प्रभात ऊग्युं, ने अनादिना
अज्ञान अंधारा टळ्या.
(१०) सम्यग्दर्शन थतां आत्मामां अपूर्व धर्मनो अवतार थयो... सिद्धना सन्देशा आव्या.
(११) आत्मा बहारना पदार्थो वगर आनंदस्वभावथी भरेलो छे, तेमांथी ज सुख प्रगटे छे.
(१२) अज्ञानी स्वसुखने भूलीने बहारना अनंत पदार्थोने सुखनुं कारण माने छे, तेमां
अनंत आकुळता छे.
(१३) बहारमां सुख ए तो कल्पना ज छे, सुख तो आत्माना स्वभावमां भर्युं छे.
(१४) जेम हाथी चुरमुं अने घासना स्वादने भेळसेळ करीने विवेक वगर खाय छे, तेम पशु
जेवो अज्ञानी चैतन्यना अने रागना स्वादने एकमेक वेदे छे.
(१प) चैतन्यना आनंदना शांतरसना स्वादने भूलीने अज्ञानीने रागनो रंग चडी गयो छे.
(१६) धर्मात्माने चैतन्यनो रंग चडयो छे, चैतन्यना स्वाद पासे रागनो रस तेने छूटी गयो छे.
(१७) अरे, आवो मनुष्य अवतार अनंतकाळे मळ्यो छे तेमां आ वस्तु समजे तो सफळता
छे.
(१८) आत्माने समजवानो अंदरमां रंग लागवो जोईए. चैतन्यनो रंग लागे तो रागनो
रंग ऊडी जाय.
(१९) आत्मानी अनुभूतिनो स्वाद अत्यंत मधुर छे... जगतना कोई पदार्थोमां एवो स्वाद
नथी.
(२०) अज्ञानी रागना स्वादने आत्माना चैतन्यरसनो स्वाद माने छे, तेने चैतन्यना मधुर
वीतरागी स्वादनी खबर नथी.
(२१) जेम दारूना घेनमां पडेलो माणस शीखंडमां दहीं अने साकरना जुदा स्वादने जाणतो
नथी, तेम मोहनी मूर्छामां पडेला अज्ञानीने चैतन्यनो आनंदस्वाद अने रागनो आकुळस्वाद–तेनी
भिन्नतानी खबर नथी.
(२२) पण ज्यां भिन्नतानुं भान थयुं त्यां एवो अनुभव थयो के अहो, आ मारा चैतन्यनो
स्वाद रागथी जुदो, अचिंत्य छे, आवो चैतन्य स्वाद पूर्वे कदी अनुभवमां आव्यो नहोतो.
(२३) अनुभव थतां आत्मामां अपूर्व बीज ऊगी... ते हवे पूर्ण कळाए खीलीने केवळज्ञान
थये ज छूटको.
(२४) आवा अनुभव वगर बीजा गमे तेटला साधन करे तोपण तेमां धर्मनी गंध पण नथी.
(२प) अरे, एक माखी जेवुं प्राणी पण फटकडी उपर बेसे ने मीठो स्वाद तेमां न आवे तो
तेने छोडी दे छे, ने साकरमांथी मीठो स्वाद आवतां तेना उपर ते बेसे छे... आटलो स्वादभेदनो विवेक
माखीने पण छे. तो अरे जीव! रागमां तो आकुळता छे, तेमां कांई चैतन्यनो मधुर स्वाद नथी. माटे
तेना उपरथी तुं तारी रुचि छोड... आत्मामां उपयोग मुक्तां तेमांथी अतीन्द्रिय शांतिनो मधुरस्वाद
आवे छे माटे तेमां तारा उपयोगने जोड.