जेठ: २४८९: : ७:
(२६) चैतन्यना अने रागना स्वादनो विवेक करीने जेणे आत्मामां उपयोग जोडयो तेने
सम्यक्बोधीबीज ऊगी ने अपूर्व आनंदनो स्वाद आव्यो.
(२७) चैतन्यना आनंदनो स्वाद आव्यो ने तेमां रुचि लागी, त्यां धर्मात्मा जगतनी
प्रतिकूळताना गंजने पण गणतो नथी.
(२८) धर्मात्माए अंतर्मुख थईने पोताना चैतन्यनुं अवलंबन लीधुं छे. ते चैतन्यना
अवलंबने पोतानी परमात्मदशाने साधे छे.
(२९) ज्यां सम्यक् भान थयुं त्यां आत्मामां बोधीचीज ऊगी... आत्मामां आनंदनना
अंकूशनी धारा वहेवा लागी.
(३०) मारा आत्माना स्वादमां दुनियानी प्रतिकूळता मने डरावी शके नहि के अनुकूळता मने
ओगाळी शके नहि.
(३१) आवी ज्ञानबीज जेने ऊगी ते अल्पकाळमां केवळज्ञान प्रगट करीने पूर्ण परमात्मा थई
जशे.
(३२) चैतन्यना भान वगर अज्ञानथी परमां कर्तृत्वबुद्धि करी करीने बहिर्वलणथी जीवो दुःखी
थाय छे.
(३३) जेम हरणीयां अज्ञानथी ज झांझवाने जळ मानीने पीवा दोडे छे ने दुःखी थाय छे;
तेम जीवो अज्ञानथी ज परमां कर्तृत्व मानीने, अने राग साथे कर्ताकर्मपणे प्रवर्तता थका दुःखी
थाय छे.
(३४) त्रिकाळी चिदानंदस्वरूप आत्मा पोते छे तेना भानना अभावे अज्ञानी आकुळतामां
(रागमां) शांति शोधे छे, –पण अनंतकाळेय रागमांथी शांति मळवानी नथी.
(३प) अरे जीव! झांझवाने पाणी मानीने तुं दोडयो... घणुं दोडयो... छतां ठंडी हवा पण न
आवी. तुं विचार तो कर के जो त्यां खरेखर पाणी होय तो हजी ठंडी हवा पण केम न आवी? तेम
अनादिथी अज्ञानी रागमां शांति माने छे, पण भाई! तुं विचार तो कर के हजी तने चैतन्यनी ठंडी
हवा पण केम न आवी?
(३६) चैतन्यना स्वभावमां शांति छे तेने जो लक्षमां ल्ये तो अनंतकाळमां प्राप्त न थयेली
एवी शांतिनी ठंडी हवा पोताने अंतरथी आवे.
(३७) तरस्या हरणां मृगजळमां पाणी मानीने उलटा दुःखी थाय छे, तेम आकुळतामां
(रागमां) एकाकार वर्तता अज्ञानी जीवो शुभाशुभ रागमां शांति मानीने उलटा दुःखने ज वेदे
छे.
(३८) जो मृगजळथी तरस्या हरणांनी तरस छीपे तो शुभरागमांथी अज्ञानीने शांति मळे.
(३९) जेम प्रकाशमां अंधकार नथी, ने चैतन्यप्रकाशमां रागरूप अंधकार नथी; एम बन्नेनी
भिन्नता छे.
(४०) जेम अंधकार अने प्रकाश भिन्न छे, तेम राग अने चैतन्य बन्ने भिन्न छे.
(४१) अज्ञानी ज्ञानने भूलीने परभावना कर्तापणे वर्ते छे, ते तेनो मोह छे.