आ समयसार शास्त्र छे; कुंदकुंदाचार्यदेव महा अध्यात्मसंत आत्माना अतीन्द्रिय आनंदमां
वार्ता कहेवानी शब्दोमां ताकात छे. शब्दोमां जाणवानी ताकात नथी पण स्व–परनुं कथन करवानी
ताकात छे. अने आत्मामां स्व–परने कथन करवानी ताकात छे. अने आत्मामां स्व–परने जाणवानी
ताकात छे, पण स्व–परनुं कथन करवानी ताकात आत्मामां नथी, केमके आत्मामां शब्दो नथी. पण
शब्दने अने आत्माने वाचक–वाच्य संबंध छे. शब्दो स्व–परनुं कथन करे छे, पण जाणे छे तो आत्मा
पोतानी ताकातथी.
देहादिनी क्रियाने भिन्न जाणे छे. अने जेने स्व–परनी भिन्नतानुं भान नथी, चैतन्यना आनंदनुं वेदन
नथी ते अज्ञानी विकल्पने ज पोतानुं स्वरूप मानतो थको तेना कर्तापणे वर्ते छे; परंतु तेथी बहारमां –
शरीरादिनी क्रियामां तो ते पण कांई करी शकतो नथी.
वेदन रहे– तो तेणे नवुं शुं कर्युं? रागथी पार चैतन्यनीय शांतिनुं वेदन जो न प्रगट्युं तो तेणे कांई
नवुं नथी कर्युं; ते तो रागना ने रागना ज वेदनमां ऊभो छे. अंतरमां चैतन्यना आनंदनुं साक्षात्
वेदन थाय, ने रागादिथी स्पष्ट भिन्नता भासे– ते धर्म छे; तेमां चैतन्यमांथी आनंदनी लहेरना अंकुरा
फूटे छे. – पण ते कई रीते थाय? के अंतरमां द्रष्टि देतां आनंद प्रगटे. पण अंर्तद्रष्टिनी आळसे पोते
पोताने देखतो नथी. इंग्लिशमां पण कहेवाय छे के
पोते पोताने देखतो नथी. अंतरमां द्रष्टि करे तो आत्मामां भरेलुं अमृतनुं सरोवर ऊछळे. भाई,
रागमां एवी ताकात नथी के तारा आनंदने ऊछाळे. जेम दरियो मध्यबिंदुथी स्वयं ऊछळे त्यारे तेने
सूर्यनो प्रखर ताप पण रोकी