Atmadharma magazine - Ank 237
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १४: आत्मधर्म: २३७
शके नहि, तेम चिदानंद भगवान, आनंदथी भरेलो समुद्र, ज्यां पोते स्वभावसन्मुख थईने
जाग्यो त्यां तेनी पर्यायमां आनंदनी भरती आवी, तेने जगतनी कोई प्रतिकूळता रोकी शके नहि.
अने, ज्यारे दरियामां ओट होय एटले के पाणी उतरता होय त्यारे बहारथी गमे तेटली नदीना
पाणी के धोधमार वरसाद पण तेमां भरती लावी शके नहि, तेम स्वसन्मुखता वडे जो
चैतन्यसमुद्र आत्मा पोते पर्यायमां स्वयं न ऊछळे तो धोधमार वाणीनो वरसाद के पांच
ईन्द्रियरूपी नदीनुं अवलंबन पण तेनी पर्यायमां आनंदनी भरती लावी शके नहि. ‘हुं ज्ञान छुं’
– एवा स्वसंवेदन वगर कदी बीजा कोई उपाये आत्मानो आनंद आवे नहि ने धर्म थाय नहि.
आत्माने ज्यां भेदज्ञान थयुं ने रागथी जुदो परिणम्यो त्यां चैतन्यना स्वादनुं निरंतर आस्वादन
तेने वर्ते छे. लाख वातनी आ वात आ छे के चिदानंद स्वभावनो निश्चय करीने अंतरमां तेने
अनुभवो. छहढाळामां पं. दौलतरामजी कहे छे के –
लाख बातकी बात यहै निश्चय उर लावो,
तोडि सकल जग–दंद फंद, नित आतम ध्याओ. (४–८)
अरे, आवो मनुष्य अवतार, तेनी एकेक क्षण लाखो करोडो रूा. करतांय वधु किंमती छे. पण
जगतना लोको आत्माने भूलीने एकला शृंगाररसमां मानवभव एळेत्र गुमावी रह्या छे, अने घणा
जीवो शुभरागने धर्म मानीने त्यां अटक्या छे. पण पुण्य–पापथी विलक्षण जे परमशांत चैतन्यरस
तेना स्वादने अज्ञानीओ जाणत्ता नथी. ज्ञानी तो निरंतर पोताना आत्माने रागथी विलक्षण अत्यंत
मधुर चैतन्यरसपणे ज आस्वादे छे. आवो मनुष्य अवतार पामीने आत्माना अनुभवरसनो स्वाद
केम आवे ते करवा जेवुं छे. अरे, जेम हाथमां मेंदी लगाडे ने तेनो रंग चडी जाय... तेम आ चैतन्यनी
वार्तानुं श्रवण करतां अंतरमां तेनी रुचिनो रंग चडी जाय तो अपूर्व कल्याण थाय. अहा, चैतन्यनी
रुचिनो स्वाद कोई अचिंत्य छे, ईन्द्रियोथी पार ने रागथी विलक्षण चैतन्यस्वाद अज्ञानीए कदी जाण्यो
नथी. ज्ञानी तो सदाय पोताना आत्माने एवा ज स्वादपणे अनुभवे छे. ज्ञानी ज्यां राग साथेय
आत्माने एकमेक मानतो नथी त्यां देहादि स्थूळ जड पदार्थो साथेनी एकतानी तो वात ज क्यां रही!!
अरे, ज्ञानी बहारना संयोगमां ऊभेलां देखाय पण अंतरमां न्यारा छे. ते अज्ञानीने देखाय नहि.
ज्ञानीने स्व–परनी भिन्नताना भानपूर्वक जे कांई ज्ञान छे ते बधुंय सम्यग्ज्ञान छे, ने अज्ञानीने स्व–
परनी एकतानी मिथ्याबुद्धिपूर्वक जे कांई जाणपणुं छे ते बधुंय कुज्ञान छे. भेदज्ञान करीने ज्यां ज्ञान
अंतरना स्वसंवेदनमां वळ्‌युं त्यां ते ज्ञानमां शास्त्रनुं अवलंबन पण छूटी गयुं छे. अहा, भिन्न
ज्ञानमूर्ति आत्माने विकल्पनी वृत्तिनुं उत्थान होय छतां भेदज्ञानना बळे धर्मात्मानुं अंर्तवेदन कोई
जुदुं होय छे. ए महंत संत अनादिअनंत चैतन्यनुं आस्वादन करतो भवना अंतने साधे छे. ने
अज्ञानी शास्त्रज्ञान वखते के व्रत–महाव्रतना विकल्प वखते अंदरमां राग साथे एकतानुं वेदन करतो
संसारने ज सेवी रह्यो छे. ज्ञानीना अंर्तवेदनना तमासा कोई अद्भुत अचिंत्य छे– जे अज्ञानीने
लक्षमां आवे तेवा नथी. निरालंबी चिदानंद प्रभुनुं भान थतां रागथी रहित निर्विकल्प अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद वेदनमां आव्यो... तेने विरला ज जाणे छे; बाकी तो जगत आखुं रागना वेदनमां
भरमायुं छे. रागना स्वादमां अटावयेलुं जगत चैतन्यनी शांतिने लूंटावी रह्युं छे. अरे, चैतन्यनी
शांतिना स्वाद पासे संतो जे शुभ लागणीने पर झेर कहे छे, तेने अज्ञानी अमृत जेवुं जाणीने तेमां
एकाकारपणे वर्ततो थको मिथ्यात्वरूपी झेरना कुंभने सेवे छे. चैतन्यना अमृतना अगम प्याला छे, ते
रागथी पार छे. अरे, एकवार आवा