जिनागमनुं विधान
पक्षतिक्रान्त अनुभूति ते समस्त जिनागमनु विधान छे
(समयसार कळश ९०–९१ तथा गाथा १४३ उपरनां प्रवचनमांथी)
चैतन्यतत्त्वनो अनुभव नयपक्षना विकल्पो वडे थतो नथी. नयपक्षना समस्त विकल्पोने
छोडीने, ज्ञानने विकल्पथी जुदुं करीने, स्वरूप सन्मुख करतां चैतन्यना साक्षात् अमृतनो अनुभव थाय
छे. स्वभावमां सन्मुख तो थाय नहि ने तेना विकल्पो कर्या करे तो मात्र विकल्पोनो ज अनुभव थाय
छे. चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदरूप अमृतनो अनुभव थतो नथी. नयपक्षनी भूमिका ज एवी छे के
तेमां अनेक विकल्पोनी जाळ ऊठे छे, पण जे ज्ञान ते जाळमां न अटकतां विकल्पने ओळंगी जईने
चैतन्यस्वभाव साथे एकता करे छे. तेनुं नाम आत्मअनुभूति छे, तेमां परम समतारस छे; तेमां
विकल्पनुं अकर्तापणुं परिणमी गयुं छे, ज्यां चैतन्यसन्मुख परिणमन थयुं त्यां विकल्पनी जाळ ऊठती
नथी, ते आपोआप छूटी जाय छे, ने ज्ञानमांथी तेनुं कर्तापणुं पण छूटी जाय छे.
अहा, जुओ आ शांत–शांत निर्विकल्प चैतन्य रसना अनुभवनी रीत! शुद्धनयना विकल्पनु पण
कर्तापणुं चैतन्यना अनुभवने रोकनार छे. पहेलां आ वात अंतर्मुख लक्षमां–निर्णयमां लईने द्रढ करवी
जोईए; चैतन्यना अवलंबने ज मारुं हित छे, विकल्पनो अंश पण मने अवलंबनरूप ज मारुं हित छे,
विकल्पनो अंश पण मने अवलंबनरूप नथी– आवा द्रढ निर्णयपूर्वक स्वरूप तरफ झुकतां विकल्पो समाई
जाय छे. पछी जे विकल्पो ऊठे ते ज्ञाननी अनुभूतिथी भिन्नपणे ज ऊठे छे, ज्ञानना कार्यपणे नहि;
चैतन्यनो शांतरस जे अनुभूतिमां चाख्यो ते अनुभूतिमां हवे विकल्पनी आकुळतानो रस समाई शके
नहि. सम्यग्द्रष्टिने सर्व विकल्पो शुद्धात्मानी अनुभूतिथी बहार ने बहार ज रहे छे. विकल्पो तो अनेक
प्रकारना छे. ने चैतन्यनी अनुभूति तो एकला शांतरसवाळी ज छे. अहा, द्रव्य–पर्याय ज्यां समरसी
परिणम्या त्यां वच्चे कोई विकल्प न रह्यो, आनंद ज रह्यो; स्वरूपनी अनुभूति ज रही, भगवान आत्मा
पोते ‘समयसार’ थई गयो. आवी आत्मअनुभूति ते ज समस्त जिनागमनुं विधान छे.
चिदानंदतत्त्व ज्यां जाग्युं त्यां विकल्पो भाग्या; जेम सिंहनुं जराक स्फूरण थतां ज हरणियां तो
दूर भागे, तेम चैतन्यसिंह पोतानी स्वानुभूतिमां ज्यां स्फूरायमान थयो त्यां नयपक्षना बधाय
विकल्पो हरणीयांनी जेम भाग्या. विरपुरुषना धनुषनो टंकार थतां ज कायरनी सेना भागे, तेम
स्वालंबी पुरुषार्थरूप वीरता जागी त्यां पराश्रित विकल्पो हरणीयांनी जेम भागे छे. जेम श्रीकृष्ण
ज्यारे युद्धमां चड्या त्यारे धनुष हाथमां लेतां ज त्रीजा भागनी बीजी सेना भागी गई, अने पछी
बाकीनो त्रीजो भाग पण हारीने भाग्यो; तेम कर्मने हरनारो्र कृष्ण ज्या जाग्यो ने चिदानंद स्वभावनी
श्रद्धा करी त्यांं कर्ममांथी दर्शन–मोह तो दूर भाग्यो, सम्यग्ज्ञान वडे उपयोगनुं स्वरूप साथे संधान कर्युं
त्यांं ते सम्यग्ज्ञानरूपी धनुषना टकारथी मिथ्याविकल्पो दूर भाग्या, सम्यग्ज्ञाने विकल्पोने पोताथी
भिन्न जाणीने भगाडी मुक्या; अने पछी बाकी अस्थिरताना जे विकल्पो रह्या तेनुं सामर्थ्य अत्यंत
अल्प छे. स्वरूपनी स्थिरता वडे ज्ञानी तेने अल्पकाळमां नष्ट करी नांखे छे.
स्वसन्मुख अनुभूतिमां ज्यां आत्मा स्फूरायमान थयो त्यां कोई विकल्प ज न रह्यो; आवी
अनुभूति स्वरूप चैतन्यतेजनो पूंज हुं छुं”– एम धर्मी अनुभवे छे. विकल्पनी स्फुरणा थाय ते हुं नहि,
चैतन्यपूंज जेमां स्फूरायमान थाय – ते ज हु छुं. अनुभवमां एकाग्र थता विकल्पने छोडवो नथी
पडतो, पण विकल्पो ते वखते स्वयं विलय ज पामी गयेला छे. अनुभूतिमा एकलो समरस
चैतन्यभाव अनुभवाय छे. *