अषाड: २४८९ : १७:
अनुभव माटे शिष्यनो मंगळ उमंग
अनुभव माटेना मंगळ–उमंगथी शिष्य प्रश्न करे छे; भगवान! पक्षातिक्रान्तनु शुं स्वरूप छे?
पक्षातिक्र्रान्त जीव केवो होय? तेनी अनुभूति केवी होय? जुओ, निर्विकल्प आनंदना अनुभव माटे
शिष्यने मंगळ उमंग ऊठ्यो छे... आवा अनुभवना उमंगपूर्वक प्रश्न ऊठ्यो ते प्र्रश्न पण मंगळ छे...
गुरु उपर अत्यंत आस्था छे ने अनुभवनी उत्कंठा छे... अनुभवना कांठे आवीने गुरुने पूछे छे के
प्रभो! निर्विकल्प अनुभवनु स्वरूप शुं छे ने ते अनुभवनी रीत शुं छे? पक्षातिक्र्रान्त थवा माटेना
किनारे ऊभो छे– एवा शिष्यनुं हृदय पण मंगळ छे ने ते आवो अनुभव माटेनो मंगळ प्रश्न पूछे छे.
तेना उत्तरमां आचार्यदेव १४३ मी गाथामां निर्विकल्प अनुभवनुं स्वरूप बतावे छे:–
नयद्वय कथन जाणे ज केवळ समयमां प्रतिबद्ध जे,
नयपक्ष कंई पण नव ग्रहे नयपक्षथी परिहीन ते.
जुओ, आ महा उत्तम गाथा छे. सम्यक् मेळव्या छे चोथा गुणस्थानना धर्मात्मा पण अनुभव
काळे केवळी भगवान कोई विकल्पने करता नथी तेम श्रुतज्ञानीधर्मात्मा पण कोई विकल्पने उपयोग
साथे एकमेक करता नथी.
अहा, आवी अनुभूतिमां केवा आनंदना शेरडा आवे छे, तेने धर्मी ज जाणे छे, धर्मात्मा
अनुभूतिमां चिदानंदतत्त्वने ज ग्रहे छे, विकल्पमात्रने ग्रहता नथी, केवळ जाणे ज छे. “विकल्पने जाणे
छे”– एम कह्यु परंतु अनुभवना काळे कांई विकल्प तरफ उपयोग नथी; उपयोगने विकल्पथी जुदो ज
अनुभवे छे, ते उपयोगनी साथे विकल्पने एकमेक जरा पण नथी करता, माटे एम कह्युं के विकल्पने
जाणे छे पण ग्रहण करता नथी.
चैतन्यनी शांतिनो स्वाद जेमां न आवे तेनाथी शुं प्रयोजन छे? परथी तो आत्माना
प्रयोजननी कांई सिद्ध थती नथी, बहारना रागथी पण कांई प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी, ने अंदर ‘हुं शुद्ध
छुं’ ईत्यादि विकल्पो वडे पण चैतन्यना अनुभवनुं प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी धर्मात्मा समस्त
विकल्पोना पक्षने ओळंगीने चैतन्यने अनुभवे छे– तेनुं आ वर्णन छे. जेम भगवान केवळज्ञानी
परमात्मा केवळज्ञान वडे समस्त नयपक्षोने मात्र जाणे ज छे, पण पोतामां ते नयपक्षना विकल्पोने
जरा पण ग्रहता नथी, तेम श्रुत ज्ञानीने स्वसन्मुखतामां स्वभावना ज ग्रहणनो उत्साह छे, ने
विकल्पना ग्रहणनो उत्साह छूटी गयो छे; केवळी भगवान तो श्रुतज्ञाननी भूमिकाने ज ओळंगी गया
छे एटले तेमने विकल्पनो अवकाश ज नथी, ने श्रुत ज्ञानीने जो के श्रुतज्ञाननी भूमिका छे तो पण ते
भूमिकामां ऊठता विकल्पना ग्रहणनो उत्साह छूटी गयो छे, ज्ञान विकल्पना आश्रयथी छूटीने
स्वभावना आश्रयमां वळ्युं छे. भगवान सर्वज्ञदेव सदाय विज्ञानघन थया छे, ने श्रुतज्ञानी पण
अनुभवकाळे विज्ञानघन छे, तेथी ते पण पक्षातिक्रान्त छे; श्रुतज्ञानीनी आवी आत्मदशा होय छे, ते ज
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
भाई, निमित्तना आश्रयथी लाभ थाय ए वात तो क््यांय रही, पण शांतरसना पिंड चैतन्यने
अंदरना शुद्धनयना विकल्पना आश्रये पण किंचित् लाभ नथी. साक्षात् चैतन्यने भेटवाना रस्ता
अंतरमां कोई जुदा छे. चैतन्यस्वरूपमा आरूढ थईने शांतरसना वेदननी दशामां कोई विकल्पनो पक्ष
रहेतो नथी, एनुं नाम पक्षातिक्रान्त–समयसार छे, ते विकल्पथी भिन्न चैतन्यज्योतिरूप छे, तेना
अनुभवमां भगवान आत्मानी प्रसिद्धि छे; विकल्पमां आत्मानी प्रसिद्धि न हती, तेमां तो आकुळता
हती, ने अंतरना निर्विकल्प अनुभवमां आत्मानी प्रसिद्धि थई छे. आवी अनुभूतिस्वरूप शुद्धआत्मा
छे, ते ज समयसार छे.