: १८ : आत्मधर्म: २३७
अहो, पहेलां चैतन्यना अनुभवनी आ रीत बराबर लक्षमां लईने द्रढ निर्णय करवो जोईए.
मार्गनो साचो निर्णय करवो जोईए. मार्गनो साचो निर्णय पण न करे तेने अनुभव क््यांथी थाय?
लक्ष करीने प्रयोग करतां परिणमन थाय; आ एक ज अनुभवनी रीत छे, बीजी कोई रीत नथी.
अनादिथी न पामेलो होय ते आ रीतथी ज सम्यग्दर्शन पामे छे. आ रीतथी नरकमां पण जीव
सम्यग्दर्शन पामे छे, स्वर्गमां, मनुष्यमां के तीर्यंचमां पण आ ज रीतथी सम्यग्दर्शन अने
आत्मअनुभव पमाय छे. नरक–स्वर्ग वगेरेमां जातिस्मरण वगेरेने सम्यक्त्वप्राप्तिना कारणो कह्यां छे
ते उपचारथी छे, पण ते नियमथी कारण नथी. अरे, विकल्प पण साधन नथी, तो पछी बहारना कया
साधन लेवा छे? “हुं शुद्ध परमात्मा सच्चिदानंद छुं”–एवो विकल्प पण खरेखर परलक्षी–पराश्रयी
भाव छे, ते पण अनुभवनुं साधन नथी. श्रुतज्ञानने स्वसन्मुख करवुं ते ज एक अनुभवनुं साधन छे.
विकल्पातीत थईने चैतन्यनुं स्वसंवेदन करे त्यारे श्रुतज्ञानी पण केवळी भगवाननी जेम पक्षातीत–
विकल्पातीत छे, ते पण वीतराग जेवो ज छे.
* जे जीव एकान्त एक नयने पकडीने नयपक्षना विकल्पमां ज अटके छे पण विकल्पथी जुदो
पडीने ज्ञानने स्वसन्मुख करतो नथी ते मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे.
* विकल्पथी भिन्न पडीने, स्वसन्मुखपणे जेणे चैतन्यनो अनुभव कर्यो छे, प्रज्ञाछीणी वडे ज्ञान
अने विकल्पने जुदा पाडी नांख्या छे, ते ज्ञानीने निर्विकल्प अनुभवनो काळ ज्यारे न होय त्यारे
नयपक्षना जे विकल्पो ऊठे तो चारित्रमोह पूरतो राग छे, पण धर्मीने ते विकल्पना ग्रहणनो उत्साह
नथी, ते विकल्पने साधन मानता नथी, ने तेना ते कर्ता थता नथी; तेनुं ज्ञान विकल्पथी जुदुं ने जुदुं
परिणमे छे.
* अने ज्यारे नयपक्षसंबंधी समस्त विकल्पोथी पार थईने स्वसंवेदनवडे ध्यानमां होय त्यारे
तो श्रुतज्ञानी पण वीतराग जेवो ज छे, अबुद्धिपूर्वकना विकल्पो भले पड्या होय, पण तेना
उपयोगमां कोई विकल्पनुं ग्रहण नथी; निर्विकल्प अनुभवमां एकला परमआनंदने ज अनुभवे छे.
जुओ भाई, आत्माना अनुभवनो आ मार्ग अनादि अनंत एकज प्रकारनो छे. अहो, अनंत
सर्वज्ञीए कहेलो, संतोए सेवेलो, तीर्थंकरभगवंतो अने कुंदकुंदाचार्यदेव जेवा संतोनी वाणीमां आवेलो
आ मार्ग छे.
बार वैराग्य भावनामां कहे छे: भाई, बहारना पदार्थो तो शरण नथी पण अंदरना विकल्पो
पण शरणरूप नथी. आ देह तो क्षणमां वींखाई जशे, ते तो तने अशरण छे, तेनाथी तारुं अन्यत्व छे.
अने अंदरना विकल्पो पण अशरण–अध्रुव ने अनित्य छे, तेनाथी तारा चैतन्यनुं अन्यत्व छे. –एम
जाणीने तारा चैतन्यनी ज भावना भाव. तारा चैतन्यधाममां अनंती केवळज्ञान ने पूर्णानंदनी
पर्यायो प्रगटवानी ताकथत छे, तेथी परमार्थे चैतन्यधाम ते ज शाश्वत तीर्थ छे; अंतर्मुख थईने तेनी
यात्रा करतां भवसागरथी तराय छे.
धर्मी कहे छे के: समस्त विकल्पोरूप बंधपद्धत्तिने छोडीने, अपार चैतन्यतत्त्वने हुं अनुभवुं छुं;
मारा उत्पाद–व्यय–ध्रुव चैतन्यभाववडे ज भवाय छे–श्रुतज्ञानने अंतर्मुख करीने आवो अनुभव थाय
ते सम्यग्दर्शन छे. तेने माटे विकल्पनो आधार नथी. अरे, निर्विकल्प चैतन्यनी शांतिमां विकल्पनो टेको
मानवो ते तो कलंक छे. निर्विकल्प शांतिमां विकल्पनो टेको नथी. अनुभूति वखते विकल्पनो अभाव
छे. “हुं साधक छुं ने सिद्ध थवानो छुं” एवा विकल्पो श्रुतज्ञानीने अनुभव वखते नथी. निर्विकल्प
अनुभवमां मुनिने मुनिपणाना विकल्पो नथी ने श्रावकने पण श्रावकपणाना विकल्पो नथी,
निर्विकल्पपणामां बंने सरखा छे. मुनिने विशेष आनंद ने विशेष स्थिरता छे ने गृहस्थने ओछा छे, –
ते वात पण अहीं गौण छे, केमके ‘मने ओछो आनंद छे ने मुनिने वधारे छे’ –एवा विकल्प पण
अनुभवमां नथी. आ रीते अनुभवमां श्रुतज्ञानीने केवळज्ञानीनी जेम पक्षातिक्रान्त कह्या छे. आ रीते,
अनुभव माटेना मंगळ–उमंगथी शिष्यनो जे प्रश्न हतो तेनो उत्तर आचार्यदेवे कह्यो.