Atmadharma magazine - Ank 237
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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अषाड: २४८९ : १९:


ज्ञानका अचिंत्य महिमा लक्षमें आनेसे परिणति अंतर्मुख होती है और संसारका रस छूट
जाता है.
ज्ञानस्वभावका अचिंत्य सामर्थ्य है; उसकी जिसको धून लागे उसका उसको ध्यान हो जाय,
और दूसरी सब चीजका माहात्म्य छूट जाय. परिणति अंतर्मुख हो जाय.
अपने ज्ञानपदका निर्णय जीवने कभी नहीं किया.
ज्ञानस्वभावके महिमामें जिसका मन लगा उसको संसारकी उपाधियां छू नहीं शकती.
पर्यायको ज्ञानस्वभावमें एकाग्र किये विना ज्ञानसामर्थ्यकी प्रतीत नहीं हो शकती.
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करवानी जेने धून लागी तेने राग तरफ झूकाव न रह्यो, रागथी जुदी
पडीने ज्ञानपरिणति अंतरमां वळी, ते ज्ञान भले अल्प होय तोपण केवळज्ञाननुं अचिंत्य सामर्थ्य
तेणे लक्षमां लई लीधुं छे. अहा! आटलुं जोसदार केवळज्ञान छे–एम प्रतीत करनारुं ज्ञान अंतर्मुख
थईने ते प्रतीत करे छे; रागमां रहीने ते प्रतीत न थाय.
अहा, आवा ज्ञानना महिमानो विचार पण संसारनी सर्व उपाधिने भूलावी दे छे. ज्ञानमां
संसार नथी, ज्ञानमां विभाव नथी.
आत्माका महिमा अचिंत्य है, उसका ज्ञानसामर्थ्य अचिंत्य है. ज्ञेयोमें त्रिकालीक सामर्थ्य
वर्तमान है तो ज्ञानमे्र भी त्रिकालीक जाणनेका सामर्थ्य वर्तमान है. ज्ञेयपदार्थ जेम त्रिकाळी पर्यायना
सामर्थ्य सहित एक समयमां पूरो छे तेम ज्ञानसामर्थ्य पण एक समयमां त्रणकाळने जाणवाना
सामर्थ्य सहित पूरुं छे; ने ते सामर्थ्यने प्रतीतमां लेनारुं श्रुतज्ञान पोताना पूर्ण सामर्थ्यने प्रत्यक्षभूत
करतुं प्रगटे छे. ते ज्ञानपर्याय निःसंदेह छे. पूरुं ज्ञान ने पूरुं ज्ञेय–तेनो निर्णय कर्यो ते ज्ञान हवे पोते
पूरुं परिणम्या वगर रहेशे नहि, एटले अल्पकाळमां श्रुतज्ञानमांथी केवळज्ञान थशे. अहो,
केवळज्ञानना अचिंत्य सामर्थ्यने प्रतीतमां लेवानुं सामर्थ्य वर्तमानमां छे. ते श्रुतज्ञान केवळज्ञान साथे
केलि करनारुं छे, एटले भव करवा के विकार करवो एवुं ते ज्ञानमां रहेतुं नथी.
जुओ, आ ज्ञाननुं दिव्य सामर्थ्य! आवा दिव्य सामार्थ्यने कई रीते नक्की करशे? शुं ईन्द्रियोमां
के रागमां ते नक्की करवानी ताकात छे? –ना; शुं अल्प पर्याय सामे जोये ते सामर्थ्य प्रतीतमां
आवशे? –ना; ज्ञानपर्यायने अंतरमां वाळीने दिव्यस्वभाव सन्मुख करवाथी ज आवा ज्ञानसामर्थ्यनी
प्रतीत थाय छे; आ ज सम्यग्दर्शननी रीत छे.
बस, लक्षने फेरवीने अंतरमां लई जा. बीजुं कांई करवानुं नथी. स्वभावनुं माहात्म्य आवे
तेमां क््यांय झगडो नथी, झंझट नथी. चिदानंद वस्तुने भेटतां ज्ञानपर्याय ऊघडे छे, रागने भेटतां
ज्ञानपर्याय ऊघडती नथी. निज ज्ञानस्वभावनो महिमा लावीने ज्ञानने अंतर्मुख परिणमाववुं ए ज
मुक्तिनो उपाय छे.