ज्ञानका अचिंत्य महिमा लक्षमें आनेसे परिणति अंतर्मुख होती है और संसारका रस छूट
ज्ञानस्वभावके महिमामें जिसका मन लगा उसको संसारकी उपाधियां छू नहीं शकती.
पर्यायको ज्ञानस्वभावमें एकाग्र किये विना ज्ञानसामर्थ्यकी प्रतीत नहीं हो शकती.
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करवानी जेने धून लागी तेने राग तरफ झूकाव न रह्यो, रागथी जुदी
तेणे लक्षमां लई लीधुं छे. अहा! आटलुं जोसदार केवळज्ञान छे–एम प्रतीत करनारुं ज्ञान अंतर्मुख
थईने ते प्रतीत करे छे; रागमां रहीने ते प्रतीत न थाय.
सामर्थ्य सहित एक समयमां पूरो छे तेम ज्ञानसामर्थ्य पण एक समयमां त्रणकाळने जाणवाना
सामर्थ्य सहित पूरुं छे; ने ते सामर्थ्यने प्रतीतमां लेनारुं श्रुतज्ञान पोताना पूर्ण सामर्थ्यने प्रत्यक्षभूत
करतुं प्रगटे छे. ते ज्ञानपर्याय निःसंदेह छे. पूरुं ज्ञान ने पूरुं ज्ञेय–तेनो निर्णय कर्यो ते ज्ञान हवे पोते
पूरुं परिणम्या वगर रहेशे नहि, एटले अल्पकाळमां श्रुतज्ञानमांथी केवळज्ञान थशे. अहो,
केवळज्ञानना अचिंत्य सामर्थ्यने प्रतीतमां लेवानुं सामर्थ्य वर्तमानमां छे. ते श्रुतज्ञान केवळज्ञान साथे
केलि करनारुं छे, एटले भव करवा के विकार करवो एवुं ते ज्ञानमां रहेतुं नथी.
आवशे? –ना; ज्ञानपर्यायने अंतरमां वाळीने दिव्यस्वभाव सन्मुख करवाथी ज आवा ज्ञानसामर्थ्यनी
प्रतीत थाय छे; आ ज सम्यग्दर्शननी रीत छे.
ज्ञानपर्याय ऊघडती नथी. निज ज्ञानस्वभावनो महिमा लावीने ज्ञानने अंतर्मुख परिणमाववुं ए ज
मुक्तिनो उपाय छे.