: ४: आत्मधर्म: २३७
पण कल्पनामात्र ज छे. पोताना द्रव्य अने पर्याय–बंनेने जेम छे तेम जाणवा जोईए; तो ज
सम्यग्ज्ञान थाय. पर्यायमां अशुद्धता होवा छता तेने शुद्धता मानी ल्ये, अज्ञान होवा छतां पोताने
केवळज्ञान मानी ल्ये तो महा वीपरीतता थाय. माटे द्रव्य अने पर्याय बंनेने जेम छे तेम अवधारवा.
स्वभाव–सामर्थ्यथी आत्माने शुद्धपणुं छे अने ते स्वभावने सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वडे ज्यारे
उपासवामां आवे त्यारे पर्यायमां आत्माने शुद्धपणुं थाय छे, त्यार पहेलां आत्माने अशुद्धपणुं छे. जो
अशुद्धपणामां ज शुद्धपुं मानी ल्ये तो तो आत्मानी उपासना करवानुं ज क््यां रह्युं? अशुद्धतामां
शुद्धपणुं चिंतवे तो तो ज्ञान मिथ्या थयुं. शुद्धता केम प्रगटे ने रागादिक अशुद्धता केम टळे तेनो तो जेने
विचार नथी ने एकला शुद्धचिंतननी वात करे छे ते जीव निश्चयाभासी छे, तेने सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
मोक्षमार्गमां शुं क्रिया छे?
सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–आचरण करवां ने रागादिक मटाडवा ते मोक्षमार्गनी क्रिया छे. आवा
सम्यक्श्रद्धा वगेरे थवानो अने रागादिक मटवानो उपाय तो जे करतो नथी, तेना साधनरूप
शास्त्राभ्यास वगेरेनो पण निषेध करे छे ते तो स्वछंदी–प्रमादी ज थाय छे.
सत्यनुं अवलोकन कई रीते थाय?
द्रव्य अने पर्याय बंनेने जे रीते होय ते रीते जाणवा, शुद्धता अशुद्धता बंनेने जाणवा, शुद्धताने
शुद्धता जाणवी ने अशुद्धताने अशुद्धता जाणवी तेनुं नाम सत्यअवलोकन छे. अशुद्धताने शुद्धता मानी
ल्ये तो सत्य अवलोकन थतुं नथी; ने पर्यायमां अशुद्धता देखीने आखाय आत्माने तेवो ज मानी ल्ये
ने शुद्धस्वभावने न जाणे– तो पण सत्य अवलोकन थतुं नथी. द्रव्य–पर्याय बंनेने जेम होय तेम जाणे
तो ज सत्य अवलोकन थाय छे.
द्रव्य पर्याय बंनेनुं सत्य अवलोकन करनारनी श्रद्धा केवी होय छे?
मारी पर्यायमां जे रागादि अशुद्धता छे ते छोडवा जेवा छे– एवी तेने श्रद्धा होय छे. रागादिने
पोतामां थतां जाणे ज नहि तो तेने छोडवानुं श्रद्धान क््यांथी करे? द्रव्यस्वभावनी शक्ति शुद्ध छे ने
तेना आश्रये शुद्धता प्रगटे छे, ते उपादेय छे– एवी श्रद्धा धर्मीने होय छे, ने जे अशुद्धता थाय छे ते
छोडवा योग्य छे– एवी श्रद्धा होय छे. जे प्रमारे सम्यग्दर्शन – ज्ञान– चारित्र थाय ने रागादिक माटे ते
ज जैनधर्मनो उपदेश छे, ते ज मोक्षनो उपाय छे.
अमारे तो शुद्धात्माना अनुभवनुं ज प्रयोजन छे. माटे शास्त्रअभ्यास शा माटे करीए?
शास्त्रअभ्यासमांं तो विकल्प थाय छे?
अरे भाई, शास्त्रना अभ्यासने तो तुं विकल्प ठरावीने तेने निरर्थक बतावे छे, अने अन्यत्र
विषय कषायादिमा तो तुं तारो उपयोग जोडे छे, – ए तो तारी ऊंधी द्रष्टि छे. मुनिवरो पण
चैतन्यध्यानमां निर्विकल्पपणे सदाय रही शकता नथी एटले तेओ पण शास्त्राभ्यासमां उपयोग
जोडीने ज्ञानादिनी निर्मळता वधारे छे; अने तुं तेने निरर्थक कहीने छोडे छे– तेमां तारो स्वच्छंद छे.
शास्त्रो तो वीतरागभावना पोषणनो ज उपदेश आपे छे, तेने निरर्थक कहीने छोडे छे– तेमां तारो
स्वच्छंद छे. शास्त्रो तो वीतरागभावना पोषणनो ज उपदेश आपे छे, तेने निरर्थक गणीने अन्यत्र
रागने तुं पोषे छे. जो निर्विकल्प चैतन्यध्यानमां रहेवातुं होय तो तो अन्य कोई विकल्प करवा जेवो
नथी – ए बराबर छे; पण अन्य विकल्पोमां तो उत्साहथी प्रवर्ते ने शास्त्राभ्यासनी वात आवे त्यां
तेने विकल्प कहीने निषेध करे – तो तेमां तो स्वछंद छे. तीर्थंकर भगवंतो वगेरेनां के अध्यात्मनुं
वर्णन–चारे अनुयोगना वर्णनमां वीतरागता पोषवानो ज अभिप्राय छे, ते शास्त्रोना अभ्यासथी
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने पोषण मळे छे, तेमां उपयोग जोडतां श्रद्धा–ज्ञाननी