कारण छे. पुण्य–पापनां फळनां स्थानरूप स्वर्ग–नरक वगेरेने जाणतां जीव वैराग्य पामे छे, ने
पापभावो छोडीने पुण्यकार्यमां वर्ते छे. वळी सर्वज्ञदेवे कहेलां तत्त्वो जाणतां सर्वज्ञतानो पण विशेष
महिमा आवे छे. माटे त्रणलोकनुं तेमज जीवोनी गति–आगतिनुं स्वरूप बतावनारां शास्त्रोना
अभ्यासनो पण निषेध करवो योग्य नथी
ने विशेष शास्त्राभ्यास जेटली बुद्धि न होय– तेने माटे ए उपदेश छे के थोडुंक पण प्रयोजनभूत
जाणवानुं कार्यकारी छे, बीजुं आवडे के न आवडे पण स्वभाव शुं ने विभाव शुं– एटलुं
प्रयोजनभूत जाणे तो पण पोतानुं कार्य साधी शके. पण एवो जीव कांई विशेष शास्त्राभ्यासनो
निषेध नथी करतो. अथवा जे जीव एकला अप्रयोजनभूत तत्त्वोने जाणवामां ज रोकाय छे ने
भेदज्ञाननी दरकार करतो नथी तो एवा जीवने माटे उपदेश छे के प्रयोजनभूत तत्त्वना ज्ञान
वगर तारुं बीजुं बधुं जाणपणुं कांई कार्यकारी नथी. परंतु प्रयोजनभूत तत्त्वने जाणवा उपरांत
जेनी विशेषबुद्धि होय ते विशेष अभ्यास थी गुणस्थान – मार्गणास्थान – जीवस्थान तथा
त्रणलोक वगेरेनुं वर्णन जाणवामां उपयोगने जोडे– ते यथार्थ ज छे, तेमां ज्ञानादिनी निर्मळता
थाय छे ने रागादि घटे छे.
आव्युं नथी. पोतानी मेळे विचारथी तें एम मानी लीधुं के हुं सम्यग्द्रष्टि छुं ने मने बंधन थतुं नथी–
ए तो तारी स्वछंद कल्पना छे. सम्यग्द्रष्टि तो स्वपरने भिन्न जाणतो होवाथी अत्यंत वैराग्यवंत होय
छे, ए सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न छे; ते नियमथी ज्ञान–वैराग्य–शक्ति सहित होय छे. हुं सम्यग्द्रष्टि छुं – एवा
मिथ्याअभिमानथी फूलाईने प्रवर्ते ने वैराग्यनुं तो ठेकाणुं न होय, – एवा जीवोने तो पापी कह्या छे.
पोते बुद्धिपूर्वक पापपरिणाममां प्रवर्ते अने कहे के मने बंधन नथी– ए तो मोटो स्वच्छंद छे.
सम्यग्द्रष्टि पण अशुभ परिणाम आवे तेने पाप समजे छे, ने तेने बूरा जाणीने छोडवानो उद्यम करे
छे.
उत्तर:– भाई, अशुद्धोपयोगनी अपेक्षाए शुभ–अशुभने सरखा कहीने, ते बंने छोडीने
परंतु जेने एवो शुद्धोपयोग न थाय तेणे शुभ छोडीने अशुभमां प्रवर्तवुं एवो कांई ते उपदेशनो
हेतु नथी; छे तो शुभ अने अशुभ बंने अशुद्ध, अने हेय, परंतु शुभ करतां अशुभमां तीव्र
अशुद्धता छे, तेथी तेने पहेलां ज छोडवायोग्य छे. शुभने पण जे हेय जाणे ते अशुभमां स्वच्छंदे
केम प्रवर्ते?