Atmadharma magazine - Ank 237
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 25

background image
: ६: आत्मधर्म: २३७
कारण छे. पुण्य–पापनां फळनां स्थानरूप स्वर्ग–नरक वगेरेने जाणतां जीव वैराग्य पामे छे, ने
पापभावो छोडीने पुण्यकार्यमां वर्ते छे. वळी सर्वज्ञदेवे कहेलां तत्त्वो जाणतां सर्वज्ञतानो पण विशेष
महिमा आवे छे. माटे त्रणलोकनुं तेमज जीवोनी गति–आगतिनुं स्वरूप बतावनारां शास्त्रोना
अभ्यासनो पण निषेध करवो योग्य नथी
प्रयोजनभूत थोडुं ज जाणवुं ते कार्यकारी छे, तो पछी घणुं जाणवाना विकल्पो शा माटे करीए?
अरे भाई, बीजुं संसारनुं तो घणुं जाणवामां तुं उपयोग जोडे छे अने अहीं विशेष
शास्त्राभ्यासने तुं विकल्प कहीने तेनो निषेध करे छे, ते योग्य नथी. जे जीवनी शक्ति ओछी होय
ने विशेष शास्त्राभ्यास जेटली बुद्धि न होय– तेने माटे ए उपदेश छे के थोडुंक पण प्रयोजनभूत
जाणवानुं कार्यकारी छे, बीजुं आवडे के न आवडे पण स्वभाव शुं ने विभाव शुं– एटलुं
प्रयोजनभूत जाणे तो पण पोतानुं कार्य साधी शके. पण एवो जीव कांई विशेष शास्त्राभ्यासनो
निषेध नथी करतो. अथवा जे जीव एकला अप्रयोजनभूत तत्त्वोने जाणवामां ज रोकाय छे ने
भेदज्ञाननी दरकार करतो नथी तो एवा जीवने माटे उपदेश छे के प्रयोजनभूत तत्त्वना ज्ञान
वगर तारुं बीजुं बधुं जाणपणुं कांई कार्यकारी नथी. परंतु प्रयोजनभूत तत्त्वने जाणवा उपरांत
जेनी विशेषबुद्धि होय ते विशेष अभ्यास थी गुणस्थान – मार्गणास्थान – जीवस्थान तथा
त्रणलोक वगेरेनुं वर्णन जाणवामां उपयोगने जोडे– ते यथार्थ ज छे, तेमां ज्ञानादिनी निर्मळता
थाय छे ने रागादि घटे छे.
प्रश्न:– शास्त्रमां कह्युं छे के सम्यग्द्रष्टिने बंधन थतुं नथी, माटे अमारी प्रवृत्ति गमे तेवी
हो? तेमां शुं वांधो छे?
उत्तर:– अरे भाई, सम्यग्द्रष्टिनी दशानी तने खबर नथी; सम्यग्द्रष्टिने बंधन थतुं नथी– एम
‘शास्त्रमां’ कह्युं छे ने! – पण तारी परिणतिमां ते वात आवी छे? तारी परिणतिमां तो अबंधपणुं
आव्युं नथी. पोतानी मेळे विचारथी तें एम मानी लीधुं के हुं सम्यग्द्रष्टि छुं ने मने बंधन थतुं नथी–
ए तो तारी स्वछंद कल्पना छे. सम्यग्द्रष्टि तो स्वपरने भिन्न जाणतो होवाथी अत्यंत वैराग्यवंत होय
छे, ए सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न छे; ते नियमथी ज्ञान–वैराग्य–शक्ति सहित होय छे. हुं सम्यग्द्रष्टि छुं – एवा
मिथ्याअभिमानथी फूलाईने प्रवर्ते ने वैराग्यनुं तो ठेकाणुं न होय, – एवा जीवोने तो पापी कह्या छे.
पोते बुद्धिपूर्वक पापपरिणाममां प्रवर्ते अने कहे के मने बंधन नथी– ए तो मोटो स्वच्छंद छे.
सम्यग्द्रष्टि पण अशुभ परिणाम आवे तेने पाप समजे छे, ने तेने बूरा जाणीने छोडवानो उद्यम करे
छे.
प्रश्न:– शास्त्रमां तो शुभ–अशुभ बंनेने सरखा कह्या छे ने?
उत्तर:– भाई, अशुद्धोपयोगनी अपेक्षाए शुभ–अशुभने सरखा कहीने, ते बंने छोडीने
शुद्धोपयोगनो उपदेश आप्यो, एटले ते बंने छोडीने शुद्धोपयोगरूप प्रवर्तवुं ते तो बराबर छे;
परंतु जेने एवो शुद्धोपयोग न थाय तेणे शुभ छोडीने अशुभमां प्रवर्तवुं एवो कांई ते उपदेशनो
हेतु नथी; छे तो शुभ अने अशुभ बंने अशुद्ध, अने हेय, परंतु शुभ करतां अशुभमां तीव्र
अशुद्धता छे, तेथी तेने पहेलां ज छोडवायोग्य छे. शुभने पण जे हेय जाणे ते अशुभमां स्वच्छंदे
केम प्रवर्ते?
(स्थळ संकोचने कारणे आ लेखनो बाकीनो भाग आवता अंके आपवामां आवशे.)