: १२ : आत्मधर्म: २३८
(सोनगढमां शेठश्री नेमिदासभाईना “गुरु रश्मि” ना
वास्तु प्रसंगे पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी: माह सुद ९)
देहादिनी क्रिया तो आत्मा करतो नथी तो आत्माने करवुं शुं?
* आत्मानुं कार्य आत्माना अस्तित्वमां थाय, ज्यां आत्मानुं अस्तित्व न होय तेमां आत्मानुं
कार्य न थाय. देहमां शुं आत्मानुं अस्तित्व छे? .... ना. तो देहनी क्रियामां आत्मानुं कार्य होय नहि.
* हवे आत्माना अस्तित्वमां: आत्मामां अनंतगुण छे.... तेना स्वीकारपूर्वक जे निर्मळ पर्याय
प्रगटे ते आत्मानुं कार्य छे: तेने धर्म कहेवाय. ए सिवाय पुण्य–पापना भावरूप विकार थाय, ते
खरेखर आत्माना स्वभावनुं कार्य नथी.
* आत्मानुं खरुं कार्य जेणे करवुं होय तो स्वानुभवक्रियाथी अनंतगुणस्वभावने श्रद्धामां लेवो,
ज्ञानमां लेवो; ते आत्मानुं खरुं कार्य छे. आवुं कार्य ते ज्ञाननो महिमा छे.
* ज्ञाननो महिमा ए छे के ते स्वानुभववडे आत्माने आनंदरूप करतुं प्रगट थाय छे. पर
सत्ताथी भिन्न पडीने स्वसत्तामां परिणम्युं त्यां ज्ञान आनंदरूप थईने प्रगट्युं. आवुं ज्ञान ते आत्मानुं
महिमावंत कार्य छे. ए सिवाय देहनी क्रियामां के रागनी क्रियामां महिमा नथी.
ज्यां चेतन त्यां अनंत गुण,
केवळी बोले एम.....
प्रगट अनुभव करो आत्मा,
निर्मळ करी सप्रेम.... रे चैतन्यप्रभु.....
प्रभुता तमारी चैतन्यधाममां.
आवा चैतन्यना स्वानुभवनुं कार्य ते ज महिमावंत कार्य छे, तेमां ज ज्ञाननो महिमा छे.
आवुं ज्ञान प्रगट्युं ते आनंदसहित छे. ते ज्ञान एवुं धीर गंभीर ने उदार छे के–
अनुकूळताना बरफमां ओगळे नहि.... ने
प्रतिकूळताना अग्निमां बळे नहि....
अनुकूळतामां ए ज्ञान अटके नहि, ने
प्रतिकूळताथी ते ज्ञान डरे नहि....
जगतथी आत्माने जुदुं पाडनारुं ए ज्ञान आत्माने स्वानुभवनो आनंद पमाडे छे. परभावोथी
भेद पाडवानुं महान कार्य तेणे कर्युं छे. आवुं ज्ञानकार्य महिमावंत छे. प्रशंसनीय छे. धर्मात्मा तो चैतन्यना
शांतरसना वेदक छे, विकारनो स्वाद लेनारा नथी.... आवा शांतरसनुं आस्वादन ते ज्ञाननुं आभूषण छे;
ते ज्ञान धीर छे. एवुं धीर छे के, अनुकूळता के प्रतिकूळतामां जराय डरतुं नथी; तेणे घीने ध्येय प्रत्ये प्रेरी
छे, स्वध्येयमां बुद्धिने जोडी छे ते ज्ञान धीर छे; उदार छे, ऊंचुं छे. पुण्य–पापनी तूच्छताथी पार थयेलुं ते
ज्ञान ऊंचुं छे. ते ज्ञान आत्मानुं अपूर्व सम्यक् कार्य छे. एवुं कार्य ते धर्म छे ने ते मोक्षनो पंथ छे.