: १६ : आत्मधर्म : २३८
निजात्मस्वभावने अवलंबीने प्रवर्ते ते प्रत्यक्षज्ञान एकांतसुखथी भरेलुं छे. ते निराकूळ छे, तेमां
पराश्रयनी आकूळता नथी. –आवुं स्वाश्रयी प्रत्यक्ष ज्ञान ज सुखनुं कारण होवाथी उपादेय छे,
प्रशंसनीय छे. अरे, आवा ज्ञान ने आनंदनी भावना भावतां पण देहनी वेदनाओ भूलाई जाय छे ने
परिणाम जगतथी उदास थईने चैतन्य तरफ वळे छे. पूर्णसाध्यनो स्वीकार थतां साधकभाव शरू थाय
छे.
अहो, स्वालंबी ज्ञाननो अद्भुत मार्ग कुंदकुंदस्वामीए बताव्यो छे. वाह! कुंदकुंद तो कुंदकुंद ज
छे!
ने अमृतचंद्राचार्ये अमृतना साथीया पूर्या छे.
मार्ग तो अंतरमां आवो छे; तेमां ईन्द्रियज्ञाननुं अवलंबन नथी, त्यां बहारना अवलंबननी
तो शी वात? भाई तारा सुखनुं साधन तो तारा स्वभावने अवलंबतुं ज्ञान ज छे, अंतीर्मुख
अतीन्द्रिय ज्ञान सिवाय बीजुं कोई सुखनुं साधन नथी. अरे, ज्यां ईन्द्रियाधीन प्रवर्ततुं ज्ञान पण
सुखनुं साधन नथी, त्यां राग के उपदेशादि परद्रव्य सुखनुं कारण क्यांथी होय? जेनामां सुख के ज्ञान
छे ज नहि ते सुखनुं के ज्ञाननुं साधन केम होय? अतीन्द्रिय ज्ञान ने सुखथी भरेलो आत्मस्वभाव
पोते ज स्वयमेव पोताना ज्ञान ने सुखनुं साधन छे ने ते ज महान उपादेय छे.
ज्ञानना अंशने अंतरमां वाळतां पूर्ण ज्ञानस्वभावनी प्रतीत थाय छे, ते प्रतीत अतीन्द्रिय
आनंदनुं वेदन लेती आवे छे.
अरे, पण आ वातने अंदर उतारवा घणुं निश्चल चित्त जोईए. पर्यायमां पूर्ण नथी छतां
स्वभावने पूरो प्रतीतमां लेवो–तेमां अपूर्व अंतमुर्ख उद्यम छे. आवो अवसर मळ्यो, सन्तोए
अतीन्द्रिय आनंदनी वार्ता संभळावी, ते सांभळीने मुमुक्षुने तेनो उल्लास आवे छे. आवा स्वभावमां
उतर्यो ते जगतनी अनुकूळता के प्रतिकूळतामांज अटकतो नथी.
अरे! एक पळ काढवी ते ज्यां पल्योपम जेवडी लागे–एवी घोर प्रतिकूळता वच्चे नरकमां
करोडो अबजो असंख्याता वर्षो जीव रह्यो; त्यां पण कोई जीव पूर्व संस्कार ताजा करीने चैतन्यां ऊंडो
उतरीने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद चाली ल्ये छे. भाई, पूर्ण साध्य एवुं केवळज्ञान–के जे परम
अतीन्द्रिय आनंद सहित छे–तेने तुं बहुमानथी निर्णयमां तो ले. ए पूर्ण साध्यने प्रतीतमां लेतां तने
जडईन्द्रियोन, रागनो ने ईन्द्रियो तरफना ज्ञाननो महिमा ऊठी जशे, ने आत्माधीनपणे तने मोक्षमार्ग
प्रगटशे.
भाई, आत्मानो मार्ग आत्मानी पासे ज छे; तारो मार्ग तारा अंतरमां ज छे, बहार नथी.
अहो, आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद ने अतीन्द्रियज्ञान उपादेय छे–एवा निर्णयमां सम्यक्त्व थाय छे. ने
अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदनो अंश प्रगटे छे. अतीन्द्रिय ज्ञाननो कोई अचिन्त्य महिमा छे. ए ज्ञानने
दिव्य सर्वोत्कृष्ट महिमावंत कहेवामां आचार्यदेवने ते ज्ञानमहिमानो कोई अचिंत्य उल्लास आव्यो छे.
ज्ञानना आवा अचिंत्य सामर्थ्यने ओळखे त्यारे अरिहंतने ओळख्या कहेवाय. अरिहंतना आत्माने
खरेखर ओळखतां पोताना अचिंत्य स्वभावसामर्थ्य तरफ वलण थाय ने राग तरफनुं वलण छूटी
जाय; रागनो के पराश्रयनो आदर न रहे, स्वाश्रयने ज उपादेय समजीने स्व तरफ परिणति वळ्या करे.
एटले तेनुं ज्ञान अतीन्द्रिय थईने तेने परम आनंदनो अनुभव थाय, तेने सम्यग्दर्शन थाय, ते
मोक्षना पंथे जाय. अहा, पूर्ण साध्यना स्वीकारपूर्वक साधकभाव वर्ती रह्यो छे.
हे जीव! पूर्ण ज्ञान ने आनंदने साधवानो आ अवसर आव्यो छे. जगतना अनंतानंत जीवोने
तो अनंतकाळे त्रणपणुं पामवानाय सांसा छे, छेल्लामां