Atmadharma magazine - Ank 238
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : २३८
मुमुक्षुनो मंगल अभिप्राय
दर्शन–ज्ञान–चारित्रवडे आत्मानी आराधनाथी ज सिद्धि थाय छे, ए सिवाय बीजी रीते सिद्धि
थती नथी, माटे दर्शन–ज्ञान–चारित्रवडे आत्मानी उपासना करवी–ए मोक्षार्थी जीवनुं प्रयोजन छे.
चैतन्यनी प्राप्ति करवी–ए ज जेनो मंगल अभिप्राय छे, एवो मोक्षार्थी जीव मुक्तिने माटे प्रथम तो
ज्ञानस्वरूप आत्मानी ओळखाण करीने तेनी श्रद्धा करे छे. आ चैतन्यस्वरूप आत्मा ज हुं छुं, ने तेना
सेवनथी पूर्ण सुखरूप मोक्षनी प्राप्ति थशे. आवी निःशंकश्रद्धापूर्वक तेमां लीनता थई शके छे. मोक्षना
भणकारा वगाडतो जे शिष्य आव्यो छे ते मंगलअभिप्रायवाळो शिष्य सर्व प्रकारे प्रयत्नवडे आत्माने
जाणे छे, श्रद्धा करे छे ने पछी तेमां ठरवानो उद्यम करे छे. तेने छूटकारानी ज वात गमे छे. श्रवणमां,
मननमां, शास्त्रना पठनमां सर्वत्र ते छूटकारानी ज वात शोधे छे. पहेली वात ए छे के आत्माने
जाणवो. ज्यां वास्तविक ज्ञान कर्युं त्यां “आवो आत्मा हुं”–एवी निःशंक श्रद्धा पण थई. आवा श्रद्धा–
ज्ञान करनारने रागनो अभिप्राय नथी, संसारनो अभिप्राय नथी, एक मात्र चैतन्यनी प्राप्तिनो ज
मंगलअभिप्राय छे, बंधनथी छूटकारानो ज अभिप्राय छे. जेम धननी प्राप्तिनो अभिलाषी राजाने
ओळखीने अने श्रद्धा करीने घणा उद्यमपूर्वक तेनुं सेवन करीने तेने रीझवे छे, विनयथी–भक्तिथी–
ज्ञानथी सर्व प्रकारे सेवा करीने राजाने रीझवीने प्रसन्न करे छे तेम मोक्षार्थीजीव अंतर्मुख प्रयत्नवडे
प्रथम तो आत्माने जाणे छे, अने श्रद्धा करे छे; ज्ञानवडे जे आत्मानी अनुभूति थई ते अनुभूति ज हुं
छुं–एम आत्मज्ञानपूर्वक प्रतीति करे छे, अने पछी ते आत्मस्वरूपमां ज लीन थईने आत्माने साधे
छे. –आत्माने साधवानी आ रीत छे.
आबालगोपाल–बाळकथी मांडीने वृद्ध सौने आ आत्मा ज्ञानस्वरूपे ज अनुभवमां आवतो
होवा छतां, भेदज्ञानना अभावने लीधे अज्ञानी जीव तेने राग साथे एकमेक अनुभवे छे, आत्माने
रागमय मानीने रागवाळो ज अनुभवे छे, तेथी तेने आत्मज्ञान सम्यग्दर्शन के चारित्र उदय पामतुं
नथी. ए रीते तेने आत्मानी सिद्धि थती नथी. ज्ञानी धर्मात्मा सम्यक् अभिप्रायवडे आत्माने रागथी
भिन्न अनुभवे छे; आवा अनुभव विना कोई रीते आत्मानी सिद्धि थती नथी. माटे पहेलां अंतर्मुख
पुरुषार्थवडे आत्माने सम्यक् प्रकारे जाणीने, तेनुं श्रद्धान करवुं, अने तेनो अनुभव करवो–आवो
भगवान संतोना मंगल आशय छे; ज्ञानस्वभावनी सेवा–उपासना–आराधना करवानो उपदेश छे.
पर्यायने ज्यारे अंतर्मुख करीने ज्ञानस्वभाव साथे एकाकार करे ने रागथी जुदो पडीने ज्ञानने
अनुभवे त्यारे ज्ञाननी उपासना करी कहेवाय. आत्मा ज्ञानस्वभावी होवा छतां ज्ञाननी आवी
उपासना तेणे पूर्वे एक क्षण पण करी नथी, रागमां तन्मय थईने अज्ञानने ज सेव्युं छे, अनात्मानी
ज सेवा करी छे. ज्ञाननी सेवा तो त्यारे थाय के ज्यारे अंतरमां रागथी जुदो पडी, ज्ञानस्वभावने
ओळखी, श्रद्धामां ने अनुभवमां ल्ये. मुमुक्षुनो मंगल अभिप्राय अने मंगलकामना ए छे के रागथी
भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्माने सदाय सेववो एटले के निरंतर सतत अनुभववो. आ ज सिद्धिनो पंथ
छे. आचार्यदेव कहे छे के अमे आत्माने निरंतर चैतन्यस्वरूपे अनुभवीए छीए अने बीजा जे
सम्यग्द्रष्टिओ छे तेओ पण निरंतर तेने अनुभवे छे अने हे मुमुक्षु जीवो! तमे पण आत्माने सर्व
प्रयत्नथी जाणी, श्रद्धामां लई, तेनो अनुभव करो.