एवो हंस पोते छे अने सरोवर पण पोते छे; पोते पोतामां ज केलि करे छे. पहेलां आवा
आत्मस्वरूपनी द्रष्टि थवी जोईए. आवी सत् द्रष्टि वगर सदाचरण होय नहि. दयादानादि रागमां
लाभ मानीने जे आचरण थाय ते सदाचरण नथी पण असत् आचरण छे. राग ते चैतन्यहंसनो
चारो नथी, चैतन्यहंसनो चारो तो निर्मळ ज्ञान–आनंदरस छे.
जीवने धर्मी कहेवामां आवे छे, ने एवा धर्मीजीवने आस्रव रोकाय छे.
द्रष्टि वळी छे एवा ज्ञानीने पण आस्रव नथी. जेम जडपदार्थो आत्माथी अत्यंत जुदा छे, तेम पुण्य–
पाप भावो पण धर्मात्मानी निर्विकल्पअनुभूतिथी अत्यंत जुदा छे, तेमां धर्मीने जराय एकता नथी.
आवी निर्मळ ज्ञान–आनंदथी भरेली परिणति ते धर्मीनुं घर छे, ते ज धर्मत्मानुं निवासधाम छे;
रागादि परभावो ते धर्मात्मानुं निवासधाम नथी.
तेनुं नाम ज सदाचरण छे. धर्मात्माए अंतर्मुख थईने निर्विकल्प अनुभूतिवडे राग साथेनी एकता
तोडीने अने स्वभाव साथेनी एकता जोडीने आस्रवोने पोताथी जुदा कर्या छे. सम्यक् अनुभव वगर
चारित्रदशा शुं छे तेनी गतागम होय नहीं अने ज्यां सम्यक अनुभव थयो, –निर्विकल्पआनंदनुं वेदन
थयुं त्यां धर्मात्मा आस्रवथी भिन्न थया, तेने आस्रवनो अभाव ज कही दीधो छे. धर्मात्माने हजी
केवळज्ञान खील्युं नथी पण केवळज्ञाननी खाण तेणे पोतामां देखी दीधी छे, हवे तेमां एकग्रतावडे ते
खाण खोदीने ते केवळज्ञान प्रगट करशे. चैतन्यनिधाननी खाण देखी छे एटले रागमां क्यांय जरापण
आत्मबुद्धि रही नथी, माटे ते रागरहित ज छे, तेने आस्रव नथी.