Atmadharma magazine - Ank 238
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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श्रावक: २४८९ : प :
परमात्मपदने भेटवा दोडती.... अने आस्रवभावोने तोडती
साधक. धर्मात्मानी. परिणति
सोनगढमां मागसर सुद छठ्ठना रोज राजकोटना शेठश्री मोहनलाल मगनलाल
तुरखीआना मकानना वास्तुप्रसंगे पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी
आत्मा शांत–स्वच्छ चैतन्यरसथी भरेल सरोवर छे; पोते चैतन्यहंस छे, तेनामां चैतन्य अने
विकारने जुदा पाडवानी ताकात छे. चैतन्य अने विकारने जुदा पाडीने चैतन्यना आनंदनो चारो चरे
एवो हंस पोते छे अने सरोवर पण पोते छे; पोते पोतामां ज केलि करे छे. पहेलां आवा
आत्मस्वरूपनी द्रष्टि थवी जोईए. आवी सत् द्रष्टि वगर सदाचरण होय नहि. दयादानादि रागमां
लाभ मानीने जे आचरण थाय ते सदाचरण नथी पण असत् आचरण छे. राग ते चैतन्यहंसनो
चारो नथी, चैतन्यहंसनो चारो तो निर्मळ ज्ञान–आनंदरस छे.
चैतन्यरसथी छलकाता शांत सरोवरमां रागादिनी वृत्तिओ ते सेवाळ जेवी छे, मलिन छे. ते
मलिनता स्वभावनी वस्तु नथी. स्वभावनी वस्तु तो ज्ञान–आनंद छे. आवी प्रथम द्रष्टि थाय त्यारे
जीवने धर्मी कहेवामां आवे छे, ने एवा धर्मीजीवने आस्रव रोकाय छे.
आ चैतन्यमूर्ति आत्मा ज्ञान–आनंद–सुख–स्वच्छता–प्रभुता वगेरेथी भरेलो भगवान छे, ते
पुण्य–पापना आस्रवोथी रहित छे. जेम आत्मानो स्वभाव आस्रवथी शून्य छे तेम ते स्वभावमां जेनी
द्रष्टि वळी छे एवा ज्ञानीने पण आस्रव नथी. जेम जडपदार्थो आत्माथी अत्यंत जुदा छे, तेम पुण्य–
पाप भावो पण धर्मात्मानी निर्विकल्पअनुभूतिथी अत्यंत जुदा छे, तेमां धर्मीने जराय एकता नथी.
आवी निर्मळ ज्ञान–आनंदथी भरेली परिणति ते धर्मीनुं घर छे, ते ज धर्मत्मानुं निवासधाम छे;
रागादि परभावो ते धर्मात्मानुं निवासधाम नथी.
भगवानअर्हंतोने सर्वज्ञता ने पूर्णानंद क्यांथी प्रगट्या? अंदर चैतन्यसामर्थ्यमां हता ते ज
प्रगट्या छे; दरेक आत्मामां एवुं सामर्थ्य रहेलुं छे; ते सामर्थ्यनी प्रतीत करीने. तेनी सन्मुख परिणमवुं
तेनुं नाम ज सदाचरण छे. धर्मात्माए अंतर्मुख थईने निर्विकल्प अनुभूतिवडे राग साथेनी एकता
तोडीने अने स्वभाव साथेनी एकता जोडीने आस्रवोने पोताथी जुदा कर्या छे. सम्यक् अनुभव वगर
चारित्रदशा शुं छे तेनी गतागम होय नहीं अने ज्यां सम्यक अनुभव थयो, –निर्विकल्पआनंदनुं वेदन
थयुं त्यां धर्मात्मा आस्रवथी भिन्न थया, तेने आस्रवनो अभाव ज कही दीधो छे. धर्मात्माने हजी
केवळज्ञान खील्युं नथी पण केवळज्ञाननी खाण तेणे पोतामां देखी दीधी छे, हवे तेमां एकग्रतावडे ते
खाण खोदीने ते केवळज्ञान प्रगट करशे. चैतन्यनिधाननी खाण देखी छे एटले रागमां क्यांय जरापण
आत्मबुद्धि रही नथी, माटे ते रागरहित ज छे, तेने आस्रव नथी.
धर्मात्माने रागरहित अने आस्रवरहित कह्या, छतां पर्यायमां हजी ज्ञानादिनुं ओछुं परिणमन
छे–तेनो साधकने ख्याल छे. द्रष्टिना विषयमां तो पूर्णस्वभाव