: ६ : आत्मधर्म २३८
आवी गयो छे पण ज्ञान हजी सततपणे स्वज्ञेयमां रहेतुं नथी, ज्ञाननो उपयोग अमुक वखत तो निर्विकल्प
रहे छे पण विशेषपणे तेमां ज टकी शकतो नथी, अंतर्मुहूर्तमां ते विपरिणाम पामे छे. ज्ञाननुं आवुं
विपरिणमन अंदर रागनो सद्भाव सुचवे छे, ने ते राग ज आस्रवनुं कारण छे. पण ज्ञानीनुं ज्ञान तो ते
रागथी भिन्न छे माटे ज्ञानी तो बंधक नथी, राग ज बंधक छे. रागभाव अने ज्ञानभाग धर्मीने जुदा पडी
गया छे; जे ज्ञानभाग छे ते कांई बंधनुं कारण नथी. माटे ज्ञानरूपे परिणमता ज्ञानीने तो बंधनो अभाव
ज कहयो छे. बंधनुं कारण तो राग छे ने रागनो स्वामी तो ज्ञानी नथी, तो ज्ञानीने बंधन केम कहेवाय?
भाई, अंतर्मुख चैतन्यवस्तु छे तेने साधवानुं साधन पण अंतरमां ज छे. अंतर्मुखवस्तुनुं
साधन बहारमां केम होय? अंतर्मुख थईने चैतन्यनने स्पर्शीअनुभवी शकाय छे. तेमां कोई बीजानी
जरूर न पडे; आ ज सहेलामां सहेलो मार्ग छे, बीजो मार्ग छे ज नहि. ज्यांसुधी पोताने आत्मामां
शुभरागनी अधिक्ता मनाय छे के ज्ञान उघाडनी पण अधिकता मनाय छे त्यांसुधी तेने पोतामां
ज्ञानस्वभावनी अधिक्ता भासशे नहि; ए ज रीते पोतानी जेम बीजामां पण शुभराग–मंदकषाय
देखीने के ज्ञाननो कंईक उघाड के बाह्यत्याग देखीने जेने तेनी अधिकता भासे छे ने धर्मात्मानी
अधिक्ता भासती नथी ते जीवने सदानंद स्वभावनी अधिक्ता कोई रीते नहि भासे, ते रागनी ज
अधिक्ता कोई रीते नहि भासे, ते रागनी ज अधिक्तामां अटकी रह्यो छे. चैतन्यवस्तु रागनी
मंदताथी पण पार छे, अने ते चैतन्यवस्तुनी सन्मुख उपयोग वळ्या वगर बीजुं गमे तेटलुं जाणपणुं
होय तेनी कांई किंमत नथी. भले बीजा जाणपणानो उघाड ओछो पण ज्ञाने अंतर्मुख थईने ज्यां
आखा चैतन्य भंडारने देख्यो त्यां ते ज्ञान रागथी जुदुं पडी गयुं. पछी जे राग रह्यो ते ज्ञानथी
जुदापणे ज रह्यो छे ने ते रागनुं बंधन घणुं ज अल्प छे.
साधकनो उपयोग नीचली दशामां स्वज्ञेयमां लांबो काळ स्थिर रहेतो नथी. जो अंतर्मुहूर्त सुधी
स्वज्ञेयमां ज उपयोग रहे तो ते केवळज्ञान थई जाय. पहेलां तो उपयोगने अंतर्मुख करीने, निर्विकल्प
उपयोगथी स्वज्ञेयने पकडयुं छे, स्वज्ञेयने पकडीने रागथी भिन्नता करी नांखी छे, पण हजी परिणमनमांथी
रागनो सर्वथा अभाव थयो नथी तेथी उपयोग स्वज्ञेयथी खसीने परज्ञेयमां जाय छे. धर्मीने रागमां
एवुं महिमावंत छे के तेमां बंधनो प्रवेश नथी, पण चैतन्यतत्त्वथी जराक पण दुर खस्यो ने राग तरफ
उपयोग गयो तो ते बंधनुं कारण थाय छे. उपयोग तो अबंधस्वभावी छे ने राग तो बंधनुं ज कारण छे,
ते उपयोगने अनेरागने एकता केम होय? –न ज होय. ज्ञानीना परिणमनमां बंने जुदा पडी गया छे.
जे खरेखर ज्ञानी छे–ते जीव अभिप्रायथी रागनो कर्ता थतो नथी. जुओ, शास्त्रनां भणतर
भण्यो के वांचतां आवडयुं माटे तेने ज्ञानी कहेवो एम नथी, परंतु खरेखर ज्ञानी–एटले जेणे
स्वसंदेवन वडे चैतन्यनो स्वाद चाख्यो छे, रागथी पृथक थईने अंतरमां भगवानना भेटा कर्या छे ते
ज खरेखर ज्ञानी छे, एवा ज्ञानी बुद्धिपूर्वक–रुचिपूर्वक तोरागने करता नथी, केमके पोताना
चैतन्यस्वभावने रागथी अत्यंत भिन्न जाण्यो छे, अनुभव्यो छे. जुओ, आ परमात्मानो मार्ग!
परमात्मा कहे छे के अमने ज्यांथी परमात्मदशा प्रगटी त्यां तुं पहोंच एटले के तारी पर्यायने ते तरफ
वाळ, तो तुं अमारा मार्गे आव्यो–एम कहेवाय; पण जे रागमां लाभ मानीने रोकाणो ते परमात्माना
मार्गे आव्यो नथी, तेणे परमात्माना मार्गने के परमात्माने ओळख्या नथी. अंतर्मुख थईने जेणे
परमात्मस्वरूपने देख्युं छे ते धर्मात्मा परमात्माना पंथे छे, तेनी परिणति रागथी पाछी फरीने
चैतन्यस्वभाव तरफ वळी छे; धर्मात्मानी आवी परिणति छे.... जेम जेम द्रव्यपर्यायनी एकता थती
जाय छे तेम तेम आस्रवनो अभाव थतो जाय छे.... संपूर्ण एकता थतां आस्रवनो सर्वथा अभाव
थईने परमात्मदशा प्रगटी जाय छे.