मंदरागने तेओ शुध्धोपयोग मानी रह्या छे. भाई, अनुभवना आनंदनी खूमारी कोई जुदी ज होय
छे, तने तेनी गंध पण नथी तेथी तुं रागना अनुभवने ज चैतन्यनो आनंद मानी बेठो छो. –ए तो
कोई भिखारी स्वप्नमां पोताने राजा मानीने आनंदित थाय तेना जेवुं छे. मंद कषायमां शुध्धोपयोग
मानीने तुं निरुद्यमी–प्रमादी थयो छे ने शास्त्राभ्यास वगेरे कार्यो पण छोडी दीधा छे–ए तो तारो
प्रमाद ज छे. धर्मात्माने चैतन्यना आनंदना अनुभवथी सर्वत्र वैराग्य होय छे–ते ज साचो वैराग्य छे.
अज्ञानी तो स्त्री–पुत्रादि–वेपार–धंधा वगेरे प्रत्ये अरति करीने त्यां उदास थाय छे ने एने ते वैराग्य
माने छे पण ए तो कषायगर्भित वैराग्य छे, ए साचो वैराग्य नथी. चैतन्यना अभ्यासना प्रयत्नमां
तेने कलेश लागे छे एटले निरुद्यमी थईने पड्या छे अने एम माने छे के अमे तो शुध्धचिंतनमां ज
रहीए छीए. –ए निश्चयभासी जीवोनी भ्रमणा छे. ते निश्चयभासी जीवो वेदांती जेवा जाणवा.
वेदांतनी अने तेनी श्रध्धानी समानता छे, एटले तेने वेदांतनो उपदेश ईष्ट लागे छे, ने वेदांतवाळाने
तेनी वात ईष्ट लागे छे. अरे, क््यां वीतरागी जिनमत ने क््यां वेदान्त! एकेक आत्मा अनंतगुणथी
परिपूर्ण छे, क्षणेक्षणे तेना उत्पाद व्यय ध्रुव पोताथी स्वतंत्र थाय छे–आवो जिनमत समज्या वगर
स्वसन्मुखता थाय नहि, ने स्वसन्मुख थया वगर सुख थाय नहि. जेओ एकेक आत्माने स्वतंत्र
मानता नथी, आत्मानी शुध्ध–अशुध्ध पर्यायने मानता नथी तेओ अशुध्धता टाळीने शुध्धता प्रगट
करवानो उद्यम शेमां करशे? एटले मोक्षमार्ग साधवापणुं तेमना मतमां क्यां रह्युं? भूलने जाणे तो
भूल भांगवापणुं रहे, पण भूल माने ज नहि तेने तो ते भूल भांगवानो उद्यम करवानुं ज क्यां रह्युं?
वेदांतमां अद्वैतब्रह्म–निर्लेप–परमब्रह्म–अखंड–शुध्ध–एक एवा एवा शब्दो आवे तेथी केटलाकने एम
लागे के वेदांतमां पण ऊंची वात छे!! जैनमतमां जन्मीने पण केटलाक जीवो आवी भ्रमणा सेवे छे. शुं
थाय! बापु! जैनने अने वेदांतने मोटो फेर छे. जैननो निश्चयनय ए कांई वेदांतने मोटो फेर छे.
जैननो निश्चयनय ए कांई वेदांत जेवो नथी. परिणति अंतर्मुख वळीने निर्मळ थई त्यारे निश्चयनय
थयो; पण जेणे परिणति ज न मानी, उत्पाद–व्यय ज न मान्या तेने निश्चयनयनी गंध पण केवी? ते
“अहं ब्रह्मास्मि.....”