Atmadharma magazine - Ank 238
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: २३८
एम भले गोखे, ते ब्रह्ममां नथी पण भ्रममां छे. एकेक आत्माने भिन्नभिन्न आकार, दरेकमां उत्पाद–
व्यय–ध्रुवता अने द्रव्य–गुण–पर्याय तेने स्वीकार्या वगर ब्रह्मस्वरूप आत्मानी उपासना थई शके नहि.
बधुं अद्वैतब्रह्म माने अने भिन्नभिन्न तत्त्वो न माने तेने परथी पाछुं फरवानुं ने स्वमां एकाग्र थवानुं
क्यां रह्युं? भाई, केवळज्ञान थवा माटे के आत्मज्ञान थवा माटे क्यांय बहारमां लंबावुं नथी पडतुं,
पण अहीं स्वदेहप्रमाण पोताना चैतन्यमां एकाग्र थवाथी ज केवळज्ञान के आत्मज्ञान थाय छे. आ
रीते एकेक आत्माने पोतामां पूर्णता छे, ने एवा अनंत भिन्नभिन्न आत्माओ आ जगतमां छे–एम
जिनशासनमां भगवान जिनदेवे कह्युं छे, ते ज यथार्थ वस्तुस्थिति छे; वेदांतमतमां ए वात नथी.
जेनी भूल होय अने तत्त्वविचारनो अंतर उद्यम जे करे नहि तेने आत्मानो सम्यक् अनुभव क्यांथी
थाय? खरा आत्मार्थीए अंदर ऊंडा ऊतरीने, तत्त्वविचारना उद्यमवडे यथार्थ तत्त्वनिर्णय करवो
जोईए. एवा उद्यमवडे मोहनो नाश थाय छे.
* प्रश्न: तत्त्वविचारनो पुरुषार्थ करवानुं कहो छो परंतु अमने कर्मनो क्षयोपशम नथी,
भाई, तत्त्वनो विचार करीने हित–अहितनो निर्णय करी शकाय एटलो तो क्षयोपशम तने थयो
ज छे; ज्ञानना उघाडने तुं बीजा अप्रयोजनरूप पदार्थोमां रोके छे, तेने स्वसन्मुख करीने हितना
उद्यममां जोड. असंज्ञीजीवोमां तत्त्वविचार जेटलो क्षयोपशमभाव नथी पण तने तो एटलो क्षयोपशम
थयो छे. तेथी तने हितना उद्यमनो उपदेश आपीए छीए.
* होनहार होय त्यां उपयोग लागे, होनहार वगर उपयोग केवी रीते लागे?
अरे भाई, शरीरनुं पोषण–खानपान वगेरेमां तो तुं उद्यमपूर्वक तारो उपयोग जोडे छे, ने
आत्महितमां उपयोग जोडवानी वात आवे त्यां तुं होनहारनुं बहानुं काढे छे, तेथी एम जणाय छे के तने
देहादिना कार्योनी जेवी प्रीति छे तेवी आत्महितना कार्यनी प्रीति नथी. देहना खानपानादि कार्योमां तुं
होनहार मानीने बेसी नथी रहेतो, त्यां तो उद्यमपूर्वक उपयोग जोडीने रागद्वेष करे छे, अने चैतन्यना
चिंतनमां होनहारनुं बहानुं बतावीने तेनो उद्यम करतो नथी, एटले तने आत्मानी रुचि ज नथी, तुं मात्र
मानादिकथी जुठी वातो बनावी स्वच्छंदने पोषे छे. जो होनहारनी एटले के केवळज्ञाननी खरी प्रतीत होय
तो क्यांय कर्तृत्वबुद्धि रहे नहि, रागनी रुचि रहे नहि, ने ज्ञानभावनो वीतरागी पुरुषार्थ ज रहे; जे रागमां
तन्मय वर्ते, परमां कतृत्वबुद्धि करे अने होनहारनी वात करे ते तो स्वच्छंदी निश्चयाभासी छे.
“आत्मा तो अबंध छे, आत्माने बंधन छे ज नहि”– एम एकांत मानीने अज्ञानी जीव पर्यायना
विवेकरहित स्वछंदे वर्ते छे; पण अरे भाई, तने रागद्वेष अने कर्म–नोकर्मनो संबंध तो वर्ते छे, ते पछी
पर्यायमां अबंधपणुं केम कहेवाय? ए पर्याय पण तारी ज छे–एम जाण. जो पर्यायमां पण बंधन न ज
होय तो मोक्षमार्गनो उद्यम शा माटे करवो? पर्यायमां बंधन छे एम जाणे तो ते टाळवानो उद्यम करे.
* समयसारमां पण आत्माने अबद्धस्पृष्ट कह्यो छे, अने एवा आत्माने जाणे तो
जिनशासनने जाण्युं कहेवाय. एम पण त्यां कह्युं छे. तो पछी आप बंधनने जाणवानी वात शा
समयसारमां अबद्धस्पृष्ट कह्यो छे ए वात तो यथार्थ ज छे. पण एवा अबद्धस्पृष्ट आत्माने जे
ओळखे तेने, पर्यायमां जेटलुं बंधन अने कर्म साथेनो संबंध होय तेनो पण विवेक वर्ततो होय छे.
स्वभावना अनुभव तरफ जेटली पर्याय ढळी तेटली तो शुद्ध अने