शुद्धिना पुरुषार्थमां ए पडे छे, अने शुद्धिना पुरुषार्थनी अंदर पडतां शुभ भावो प्रगट थाय छे.
आ रीते प्रगट थयेलो शुभभाव ए आ बहेनोए अंगीकार करेलुं ब्रह्मचर्य छे. ए रीते, शुद्धिना
पुरुषार्थना प्रयत्ननी गडमथल करतां, एनी पाछळ प्रयत्न करतां करतां आ बहेनोने आ
शुभभाव आवेलो छे.
अभ्यास पछी, एक आत्महितना निमित्ते, पूज्य गुरुदेवनी सुधास्यंदिनी वाणीना निरंतर
सेवनना अर्थे, ए सुधापान पासे बीजा सांसारिक, कथनमात्र, कल्पित सुखो तो अत्यंत गौण
थई जवाथी, अने परमपूज्य बेनश्रीबेन (चंपाबेन–शान्ताबेन) नी शीतळ छायामां रहीने
कल्याण करवानी भावनाथी लेवायेलुं आ ब्रह्मचर्य–ए तद्न जुदी वात छे. सामान्य रीते पहेला
प्रकारनुं ब्रह्मचर्य पण जगतमां अत्यंत अल्प–नहिवत जेवुं–होय छे, तो आ प्रकारनुं ब्रह्मचर्य
तो खूब प्रशंसनीयपणाने पामे छे.
–एम करीने राजपुत्रो चाली नीकळता ने भावमुनिपणे विचारता. ‘महा मोहना अंधा
लागे छे, अब्रह्मचर्य ए अमने अग्निनी शिखा गळवा जेवुं लागे छे, अब्रह्मचर्य ए असिधारा पर
चालवा जेवु दुर्घट लागे छे’ अने ब्रह्मचर्यमां रहेवुं ए सहज लागे छे, ए अमृतना पान जेवुं लागे छे,
अमृतसरोवरनी अंदर स्नान जेवुं लागे छे, ए अमारुं पोतानुं लागे छे, बीजुं बधुं पारकुं लागे छे. –
एवा भावथी राजपाट छोडी राजाओ ज्यारे चाल्या जता, अने निरंतर ब्रह्मनिष्ठ रहीने हंमेशा
सुधापान करता, ए काळ तो धन्य हशे. धन्य छे ए काळ के ज्यारे आवी मुनिदशानां दर्शन थतां हशे.
आ काळे तो एवी मुनिदशानुं निरूपण करनार पण बहु अल्प छे. मुनिदशा पण जाणे कष्टसाध्य होय–
एवुं निरूपण जैनदर्शनमां पण व्यापक थई गयुं छे, जैनदर्शन जाणे एक थोथां जेवी क्रियामां समातुं
होय, क्रियाओथी ज मोक्षप्राप्ति थती होय, –एवुं जैनदर्शननुं विकृत स्वरूप अपाई गयुं छे. –एवाआ
काळमां पू. गुरुदेवे स्वानुभव करीने, “आत्मा ए ज्ञानानंदमूर्ति पदार्थ छे अने एनो प्रयत्न ए
ज्ञानानंदमूर्तिना दर्शन थतां सहजभावे प्रगटे छे, ज्यां अब्रह्मचर्य अत्यंत कष्टप्रद लागे छे अने
ब्रह्मचर्य सुखद लागे छे, कष्टसाध्य मोक्षमार्ग नथी पण सहजानंदमय छे” –एवुं निरूपण कर्युं, –अने
एने लईने