: १६ : आत्मधर्म: २३९
(९)
आकिंचन्यधर्मनी आराधना
भेदज्ञानना बळे सर्वत्र ममत्व छोडीने चैतन्यभावनामां रत थयेला मुनिओ, शास्त्रना ऊंडा
रहस्यनुं ज्ञान बीजा मुनिओने पण विना संकोचे
आपे छे. सिंह आवीने शरीरने खाई जाय तो पण
देहनुं ममत्व करता नथी. भरतचक्रवर्ती जेवा क्षणमां
छखंडनो वैभव छोडीने, ‘ज्ञातास्वभाव सिवाय कांई
पण मारुं नथी’ एवी अकिंचनभावनारूपे परिणम्या.
‘शुद्ध ज्ञानदर्शनमय एक आत्मा ज मारो छे,
ए सिवाय अन्य कांई पण मारुं नथी’ –एवा
भेदज्ञानना बळे देहादि समस्त पर द्रव्योमां ने
रागादि समस्त परभावोमां ममत्व परित्यागीने
जेओ अकिंचनभावमां तत्पर छे एवा उत्तम
आकिंचन्यधर्मना आराधक मुनिवरोने नमस्कार हो.
हे चैतन्यरत संतो!
अमने आकिंचन्यधर्मनी आराधना आपो.
(१०)
उत्तम ब्रह्मचर्यनी आराधना
जे सीताजीना विरहमां पोते पागल जेवा
बनी गया हता ते ज सीताद्वारा ललचाववा छता
भगवान रामचंद्रजी विषयभोगोमां ललचाय नहि
ने उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनी आराधनामां लीन थईने
सर्वज्ञ परमात्मा थया. धर्मात्मा जयकुमार
देवीओद्वारा पण ब्रह्मचर्यथी डग्या नहि. धर्मात्मा
शेठ सुदर्शन प्राणांत जेवा प्रसंगे पण पोताना
ब्रह्मचर्यव्रतथी डग्या नहि. रावण वडे अनेक प्रकारे
ललचाववा छतां भगवती सीता पोताना ब्रह्मचर्यथी
डग्या नहि.
जगतना सर्व विषयोथी उदासीन थईने ब्रह्मस्वरूप निज आत्मामां ज जेमणे चर्या प्रगट करी
एवा उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मना आराधक संत–धर्मात्माओने नमस्कार हो.
हे निजानंदलीन संतो! अमने उत्तम ब्रह्मचर्यनी आराधना आपो.