भादरवो: २४८९ : २१ :
छे. प्रतिकूळता आवे त्यां आर्तध्यान न करे पण स्वभाव तरफ झूके. ने तीव्र वैराग्यवडे रत्नत्रयनी
आराधनाने पुष्ट करे. मुनिनी जेम श्रावकने पण आ उपदेश लागु पडे छे. हे जीव! सम्यग्दर्शननी
निर्मळता प्रगट करी, संसारने असार जाणी, अंतर्मुख थईने सारभूत एवा चैतन्यनी भावना भाव
वैराग्यना प्रसंगने याद करीने तेनी भावना भाव के जेथी तारा रत्नत्रयनी शुद्धता थईने केवळज्ञाननी
प्राप्ति थाय. सार शुं अने असार शुं एने ओळखीने तुं सारभूत आत्मानी भावना कर.
दीक्षा वखतना उग्र वैराग्य प्रसंगनी वात लईने आचार्यदेव कहे छे के अहा दीक्षा वखते शांत
चैतन्य दरियामां लीन थई जवानी जे भावना हती, जाणे ते चैतन्यना आनंदमांथी कदी बहार ज न
आवुं, एवी वैराग्यभावना हती. ते वखतनी विरक्तदशानी धारा तुं टकावी राखजे... जे संसारने
छोडतां पाछुं वाळीने जोयुं नहि, वैराग्यथी क्षणमां संसारने छोडी दीधो, हवे आहारादिमां क्यांय राग
करीश नहीं. तेम जेणे चैतन्यने साधवो छे तेणे आखा संसारने असार जाणी परम वैराग्य भावनाथी
सारभूत चैतन्यरत्ननी भावना वडे सम्यग्दर्शनादि शुद्धता प्रगट करवी.
भव, भोग अने तन त्रणेथी अत्यंत उदास थई अंतरमां चैतन्य तरफ वळ. मुनिओनी पूजामां
आवे छे के:–
भव भोग तन वैराग्यधार, निहार शिव तप तपत है।
तिहुं जगतनाथ अराध साधु सु पूजनीक गुण जपत है।।
जीवनमां उत्कृष्ट वैराग्यना जे प्रसंगो होय, ज्यारे वैराग्यनी सीतार झणझणी ऊठी होय. एवा
प्रसंगनी वैराग्य धाराने बराबर जाळवी राखजे. फरीफरी तेनी भावना करजे. कोई महान प्रतिकूळता,
अपजश, वगेरे उपद्रव प्रसंगे जागेली तारी उग्र वैराग्य भावनाने अनुकूळता वखते पण जाळवी
राखजे. अनुकूळतामां वैराग्यने भूली जईश नहीं.
धर्मात्मा प्रतिकूळताथी घेराई जता नथी, परिणाम बगडवा देता नथी, पण तेवा प्रसंगे उलटी
वैराग्यनी धारा उपडे छे. प्रतिकूळतामां आर्तध्यान न करे, पण ऊलटुं पुरुषार्थनी प्रबळता करीने
वैराग्य वधारे छे. जेम जेम धर्मीने वेदनानी तीव्रता तेम तेम तेने वीर्यनी विशेष स्फुरणा जागे छे.
आवा वैराग्यनी तीव्र भावना वडे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी उत्तमता प्रगटे छे, ने अल्पकाळमां
केवळज्ञान थाय छे.
एवो प्रसंग आवी पड्यो होय के जेमां जीवन मरणनो पण संदेह होय–एवा प्रसंगे धर्मात्माने
वैराग्य अने आराधनानुं जोर वधी जाय छे. एवा वैराग्यनी धाराने निरंतर टकावी राखीने
रत्नत्रयधर्मनी शुद्धता प्रगट करजे. आवो भावशुद्धिनो उपदेश छे. भावशुद्धि वगर बाह्यमां त्यागी
थाय तो पण बाह्य विषयोमां लुब्धता तो पडी ज छे. चैतन्य तरफना चेतना तो छे नहि एटले
आहारमां–भयमां–मैथुनमां के परिग्रहमां क्यांक ने क्यांक परविषयमां परिणामने रोके छे. आत्मवशता
तो छे नहि, एटले ईन्द्रिय विषयोने ज वश वर्ते छे; आवा भावे अनादिकाळथी जीव संसारवनमां
भ्रमण करे छे, माटे अरे जीव! हवे तो तुं ते भाव छोड. जगतनो भय छोडीने चैतन्यने साधवा माटे
सावधान था. अतीन्द्रिय चैतन्यनी सन्मुखतावडे तीव्र वैराग्यभावना प्रगट करी मैथुनसंज्ञाने के
परद्रव्यना ममत्वरूप परिग्रहसंज्ञाने तुं छेदी नाख. जे भावे भववनमां तुं भम्यो ते भावनुं सेवन हवे
छोड ने चैतन्यना सेवनवडे भावशुद्धि प्रगट कर जगतना मान–पूजानी दरकार छोडीने तुं तारा
आत्माना सुधारा माटे नीकळ्यो छो ने! तो एवी भावशुद्धि प्रगट कर के जेथी तारुं भवभ्रमण टळे...
ने मुक्ति थाय एवो उपदेश छे.