आचार्यभगवान कहे छे के अरे जीवो! जे जीव वैराग्यपरिणत छे ते ज कर्मबंधनथी छूटे
राचो; शुभरागनी प्रीति न करो; शुभरागने धर्मनुं के मोक्षनुं साधन न मानो. धर्मात्माओने
शुभराग प्रत्ये पण वैराग्य छे. वैराग्य ए ज धर्मीनी संपत्ति छे. शुभरागने पण धर्मीजीव
पोतानी संपत्ति मानता नथी. रागनी जेने रुचि छे, रागने जे धर्मनुं साधन माने छे ते जीव
रागना कर्तृत्वमां अटकेलो छे, तेने वैराग्यनो कण पण जाग्यो नथी. रागनो कर्ता थाय तेने
वैरागी केम कहेवाय? रागनो कर्ता थाय तेने वैरागी केम कहेवाय? रागनो कर्ता थाय ते तो
संसारनी प्रीतिवाळो छे ने ते भवमां भटकवानां कर्मो बांधे छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा चैतन्यने अने
रागने अत्यंत भिन्न जाणता थका ज्ञानना रसिया छे ने रागप्रत्ये विरक्त छे, तेने ज साचो
वैराग्य छे. आखा संसारना कारणरूप रागप्रत्ये तेने वैराग्य वर्ते छे. अज्ञानी जीव राजपाट
छोडी, द्रव्यलिंगी साधु थईने पंचमहाव्रत पाळतो होय पण तेना अभिप्रायमां शुभवृत्तिना
अवलंबनथी लाभ थवानी बुद्धि पडी छे, तो तेने जरापण वैराग्य कहेता नथी. अनंतसंसारना
कारणरूप अनंतानुबंधीरागने ते सेवी रह्यो छे, क्षणेक्षणे अनंताकर्मोने बांधी रह्यो छे. धर्मात्मा
गृहस्थ घरबार वेपार धंधा वच्चे रहेला होय, अने शुभअशुभभाव पण वर्ततो होय छतां तेनुं
ज्ञान ते संयोगथी ने ते रागथी तद्न विरकत छे, तेथी ते धर्मात्मा गृहस्थपणामां रह्यां छतां पण
वैरागी छे, ने क्षणे क्षणे अनंता कर्मोथी छूटकारो पामे छे, तेथी कहे छे के–
ए जिनतणो उपदेश तेथी न राच तुं कर्मो विषे. (१प०)
बांधीने जीव संसारमां ज रखडे छे, अने विरक्त जीव कर्मोथी छूटे छे–आवुं भगवाननुं वचन छे, ते
जाणीने तुं, रागमां न राच! कर्मनां कारणोथी प्रीति छोड. रागनो एक कण पण जीवने हितरूप नथी,
ते आदरणीय नथी पण उपेक्षणीय छे, एम समज. राग ते बंधभाव ज छे, ने सम्यग्दर्शनादि
वीतरागभाव ते ज अबंधभाव छे, बंधभावने अने अबंधभावने जराय एकपणुं नथी, शुभराग
जरापण–किंचित्मात्र मोक्षनुं कारण थाय? – तो कहे छे के ना; ते बंधनुं ज कारण थाय ने मोक्षनुं
कारण न थाय–एवो अनेकान्त छे. धर्मात्मानी भूमिकामां वर्ततो शुभराग पण बंधनुं जकारण छे,
मोक्षनुं कारण तो रागथी जूदुं परि–