एम ज्ञानीओ स्वसंवेदनथी अनुभवे छे, –ए स्वरूप अमे घणा प्रकारे स्पष्ट समजाव्युं. आवा
स्वरूपने समजवानो प्रयत्न तुं कर... मरीने पण तुं आवा तत्त्वने जाण..... एकवार तेने खातर
जीवन अर्पी दे. जेनो आवा निज चैतन्यतत्त्वने नथी जाणता तेओ चैतन्यना वीर्यरहित
नपुंसकपणे अत्यंत विमूढ छे; चैतन्यनी विराधना करीने तेओ निगोदनी अत्यंत नपुंसकदशाने
साधी रहया छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा तो चैतन्यना पुरुषार्थ वडे सिद्धपदने साधी रह्या छे. आम
सामसामी बे मुख्यगति छे. चैतन्यना आराधक समकिती सिद्धपदने साधे छे, ने चैतन्यनी
विराधना करनार जीवो निगोद तरफ जई रह्या छे. अरे, निगोदना दुःखोनी शी वात! सातमी
रौरव नरकना दुःखो करतांय निगोदनुं दुःख अनंतु छे, ए दुःखने तो ए ज जीव वेदे, ने केवळी
परमात्मा ज जाणे. जेनुं वचनथी वर्णन न थाय. जेम एक तरफ सिद्धनुं सुख तेनुं पण वचनथी
वर्णन न थाय, तेम निगोदनुं दुःख–तेनुं पण वचनथी वर्णन थई न शके. निगोदमां अनंतानंत
जीवो छे. संसारमां जीवनो घणोकाळ तो आवा निगोदना दुःखोमां ज वीत्यो. तेमांथी अनंतकाळे
मांड मांड त्रसपर्याय पाम्यो, मनुष्य थयो, जैनधर्म मळ्यो, सत्समागम–साचा ज्ञानी
संतधर्मात्मानो महान योग मळ्यो, सतनुं श्रवण मळ्युं, बुद्धि मळी, –तो हे जीव! आवा
अवसरमां परम प्रयत्न करीने तारा चैतन्यतत्त्वने तुं समज. अनंतकाळनुं संसारभ्रमण–
नरकनिगोदना महा दुःखोथी भरेलु–तेनाथी छूटवानो आ अवसर छे. आ अवसर चूकीश तो
क्यांय उगरवानो आरो नथी. चैतन्यने समजवा तरफ जो प्रयत्न न कर्यो तो तारुं वीर्य हणाई
जशे; द्रव्यलिंगी साधुअनंतवार थयो, अनेक लब्धिओ ने चमत्कारो अनेकवार प्रगट्या, घणो
बाह्य त्याग कर्यो, व्रत–तप कर्या, ए रीते शुभरागमां ज तन्मयपणे वर्तता थका तेने ज पुरुषार्थ
माने छे, पण रागथी भिन्न एवा चैतन्यतत्त्वने श्रद्धा–ज्ञानमां लेवानो प्रयत्न जेओ करता नथी–
एवा जीवने आचार्यदेव नपुंसर कहे छे, भले पुरुष होय के मोटो देव होय, पण चैतन्यना
पुरुषार्थ रहित छे तेथी नपुंसर छे, ने चैतन्यनी विराधनाथी ते अल्पकाळे निगोदनो नपुंसर थशे.
संसारमां त्रसपर्यायनो काळ थोडो छे, तेमां जो चैतन्यनी आराधना करी ल्ये तो सिद्धपद पामे, ने
जो चैतन्यनी विराधना करे तो निगोद पर्यायमां जाय. निगोदमां जीव पोताना प्रचूर भावकलंकथी
ज रह्यो छे, प्रचूर भावकलंक कहो के चैतन्यनी विराधना कहो, तेनुं फळ निगोद छे.