Atmadharma magazine - Ank 240
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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आसो: २४८९ : १७ :
जगतमां चैतन्यने नहि जाणनारा अज्ञानीओ घणा छे; ते अज्ञानीओ अनेक प्रकारे परने अने
रागने ज आत्मा कहे छे; ते मिथ्याद्रष्टि–अज्ञानी–आत्माना विराधक जीवोना ऊंधा अभिप्रायना
प्रकारो समजावीने आचार्यदेव जिज्ञासु शिष्योने ते विपरीतता छोडावे छे.
घणा अज्ञानी जीवोमांथी कोई तोएम माने छे के राग–द्वेषरूप जे मलिनभावो छे ते ज आत्मा
छे, रागद्वेषथी जुदो आत्मा अमने देखातो नथी. जेम काळापणाथी जुदो कोलसो देखातो नथी. तेम
रागद्वेषरूप कालिमाथी जुदुं कोई चैतन्य अमने देखातुं नथी. आचार्यदेव कहे छे के अरे मूढ! काळाशथी
जुदो कोलसो नथी परंतु काळाशथी जुदुं सुवर्णतो जोवामां आवे छे तेम भेदज्ञानी धर्मात्माओ
रागद्वेषरूप कालिमाथी भिन्न चैतन्यद्रव्यने पोताना स्वानुभवथी अनुभवे छे; भगवान सर्वज्ञदेव
अर्हंतपरमात्माए पुद्गल परिणामोथी भिन्न चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य कह्युं छे, आगममां पण
अध्यवसायोथी भिन्न चैतन्यमय जीव कह्यो छे. सम्यग्ज्ञानी युक्तिथी पण जीव चैतन्य स्वभावमय ज
सिद्ध थाय छे, केम के रागद्वेष तो जीवथी जुदा पडी जाय छे, ते कांई जीवनी सर्व पर्यायमां रहेता नथी,
अने चैतन्य तो जीवनी सर्वपर्यायोमां रहे छे, – ईत्यादि युक्तिओथी पण एम ज नक्की थाय छे के जीव
ज्ञानस्वभावमय ज छे, जीव रागद्वेषमय नथी. अने भेदज्ञानीओ स्वसंवेदन वडे एवा जीवने प्रत्यक्ष
अनुभवे छे. आरीते आगम–युक्ति अनेअनुभवथी संतोए चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्यने जडथी ने
रागथी अत्यंत भिन्न प्रसिद्ध कर्युं छे. अरे जीव! तुं आवुं आगम सांभळीने, सर्वज्ञ अने संतोनी
वाणीमां चैतन्य स्वभावनुं श्रवण करीने, सम्यक् युक्ति वडे तेनो निर्णय करीने, अंदरमां तेनो
स्वानुभव कर. बीजा बधा विपरीत मान्यताना कोलाहल छोड ने अंतरमां निरंतर प्रयत्न करीने तारा
चैतन्यतत्त्वने परथी भिन्न देख. एकधारा साची लगनीथी उत्कृष्टपणे छ महिना करतां तने जरूर तारा
चैतन्यना विलासनो आनंदसहित अनुभव थशे.
त्रणने ओळखे ते त्रणने पामे
(१) स्वभावनुं सामर्थ्य
(२) विभावनी विपरीतता अने
(३) जडनुं जुदापणुं–आ त्रणने जे जीव बराबर ओळखे ते
(१) जडथी जुदो थाय,
(२) विभावथी विमुख थाय, अने
(३) स्वभावनी सन्मुख थाय–आवा त्रण प्रकार थतां जीव रत्नत्रयने पामे छे.
आराधना
“सत्संगनुं एटले सत्पुरुषनुं ओळखाण थये पण ते योग
निरंतर रहेतो न होय तो, सत्संगथी प्राप्त थयो छे एवो जे उपदेश ते
प्रत्यक्ष सत्पुरुष जाणी विचारवो तथा आराधवो, के जे आराधनाथी
जीवने अपूर्व एवुं सम्यक्त्व उत्पन्न थाय छे.”
(‘ज्ञानीना मार्गना आशयने उपदेशनारां वाक्योमांथी’)
श्रीमद राजचंद: वर्ष २८मुं.